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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७५६ शुद्धि कर्मक्षपणा में कारण है शंका-क्या शुद्धि कर्मक्षपणा में कारण नहीं है ? , समाधान-शुद्धि भी क्षपणा में कारण है । दिगम्बर लिंग धारण किये बिना समस्त कर्मों की क्षपणा नहीं हो सकती है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने सूत्र पाहुड में कहा भी है णिच्चेलपाणिपत्तं उवइट्र परमजिणवरिदेहि । एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ॥ १० ॥ "णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सवे ॥ २३ ॥" यहाँ पर यह बतलाया गया है कि नग्नता मोक्ष मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं । वणेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा। सुमुहो कुछारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो ॥२२४।१०।। प्रवचनसार चारित्राधिकार जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनवर्गों में कोई एक वर्ण धारी हो, जिसका शरीर नीरोग हो और तप करने में समर्थ हो, अति वृद्ध या अति बाल न होकर योग्य वयसहित हो, जिसका मुख का भाग भंग दोषरहित हो अर्थात सुंदर हो, अपवादरहित हो ऐसा पुरुष ही दिगम्बरी जिन दीक्षा के योग्य होता है। "शेषखण्डमुडवातवृषणादि भगेनं लोकदुगुञ्छाभयेन निर्ग्रन्थरूपयोग्यो न भवति ।" शरीर के अंग के भंग होने पर अर्थात मस्तक भंग, अंडकोष या लिंग भंग है या वातपीडित आदि शरीर की अवस्था होने पर लोक में निरादर के भय से निग्रन्थभेष के योग्य नहीं होता है। इसप्रकार शरीरशुद्धि अर्थात् द्रव्यशुद्धि होने पर मोक्षमार्ग अर्थात् कर्मक्षपणा के योग्य होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर को शुद्धि कर्मक्षपणा में सहकारीकारण है। कर्मक्षपणा में क्षेत्रशुद्धि की भी आवश्यकता है। म्लेच्छखण्ड में उत्पन्न हुए मनुष्य के म्लेच्छखण्ड में रहते हुए सम्यग्दर्शन भी नहीं हो सकता है। इसी प्रपेक्षा से म्लेच्छखंड में एक मिथ्यात्वगुणस्थान बतलाया है। "सव्वमिलिच्छम्मि मिच्छत्तं ॥ २९३ ॥" ( ति० ५० पृ० ५२५ ) अर्थ-सर्व म्लेच्छखण्डों में एक मिथ्यात्वगुणस्थान ही रहता है । कालशुद्धि भी कर्मक्षपणा में सहकारीकारण है । दुष्षमा और अतिदुष्षमा कालों में उत्पन्न हुए मनुष्यों के कर्मक्षपणा संभव नहीं है । धवल पु० ६ पृ० २४७ कर्मक्षपणा के लिये भव अर्थात् वर्तमान पर्याय को शुद्धि भी होनी चाहिये । नारक और तिर्यच दोनों अशुभपर्यायें हैं। मनुष्य और देव ये दो शुभ गति हैं । देवों में यद्यपि शुभलेश्या हैं, सम्यक्त्व भी हैं। शक्ति भी है तथापि पाहारादि की नियत पर्याय होने के कारण वे संयमधारण नहीं कर सकते, अतः कर्मों की क्षपणा भी नहीं कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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