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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [७५७ समाधान-उपाध्याय भी साधु परमेष्ठी होते हैं, किन्तु वे पठन-पाठन का कार्य विशेषरूप से करते हैं अतः उनको उपाध्यायपद दे दिया जाता है। पंचमहाव्रत, पंच समिति, पंचेन्द्रियरोध, षडावश्यक, लोच, अचेलत्व, अस्नान, भूमि शयन, अदंतधावन, खड़े होकर भोजन करना, एक बार पाहार ये मुनि ( साधु ) के २८ मूल गुण हैं। कहा भी है वदसमिदिदियरोधी, लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवरणं ठिदि भोयणमेगभत्तं च ।।२०।। एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो, छेदोवट्ठावगो होदि । २०९॥ [ प्रवचनसार ] अर्थ-व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच, आवश्यक, अचेलत्व, अस्नान, भूमिशयन, प्रदंतधावन, खड़े-खड़े भोजन, एकबार पाहार, यह वास्तव में श्रमणों के मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं। उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है। उपाध्याय भी श्रमण हैं इसलिये उनमें भी उपर्युक्त २८ मूलगुण होते ही हैं। इनके अतिरिक्त ग्यारहमङ्ग और चौदहपूर्व के पठन-पाठन से उनमें ( ११+१४=२५ ) पच्चीस गुण और कहे गये हैं। जिनमें २८ मूलगुण नहीं है वह श्रमण ही नहीं है और जो श्रमण नहीं है वह उपाध्याय भी नहीं हो सकता। -जें. ग. 23-3-72/IX| विमलकुमार जैन स्पृश्य शूद्र ही क्षुल्लक दीक्षा के योग्य हैं शंका-पूज्य वर्णीजी ने अपनी जीवन गाथा में पृष्ठ ३५२ में लिखा है कि अस्पृश्यशूद क्षुल्लक पद का धारक हो सकता है। किंतु पंडित दीपचंदजोकृत भावदीपका पृष्ठ १५४ में लिखा है कि अस्पृश्यशूद्र दूसरी प्रतिमा से अधिक धारण नहीं कर सकता । वास्तविक क्या है और दोनों में किस अपेक्षा से लिखा है ? समाधान-'मेरी जीवन गाथा' पृष्ठ ३५२ पर 'क्षुल्लक भी हो सकता है' इन शब्दों से पूर्व स्थान रिक्त है जिससे स्पष्ट है कि यहां पर शब्द 'शूद्र' रह गया है । पूज्य वर्णीजी का यह अभिप्राय नहीं था और न है कि अस्पृश्य शूद्र क्षुल्लक हो सकता है । 'शूद्र' क्षुल्लक हो सकता है, यह बात स्पष्ट है । किन्तु प्रश्न यह है कि स्पृश्यशूद्र या स्पृश्य व अस्पृश्य दोनों । इस विषय में प्रायश्चित्तचूलिका ग्रंथ में निम्न प्रकार गाथा है 'कारिणो द्विविधाः सिद्धा भोज्याभोज्य प्रभेदतः । भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकवतम् ॥१५४॥' अर्थ-कारूशूद्र भोज्य और अभोज्य के भेद से दो प्रकार के प्रसिद्ध हैं, उनमें से भोज्यशूद्रों को ही सदा क्षुल्लकवत देना चाहिए । संस्कृत टीका में 'भोज्य' पद की व्याख्या इसप्रकार है-'यदन्नपानं ब्राह्मण-क्षत्रियविटक्षुद्रा भंजन्ते भोज्याः। अभोज्या:-तद्विपरीतलक्षणा:। भोज्येष्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा, नापरेषु ।' अर्थात-जिनके हाथ का अन्न-पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्यकारू कहते हैं। इनसे विपरीत अभोज्यकारू जानना चाहिए। क्षुल्लकव्रत की दीक्षा भोज्यकारूओं में ही देना चाहिए, अभोज्यकारूपों में नहीं । इस आगमप्रमाण से स्पष्ट हो जाता है कि अस्पृश्य शूद्र क्षुल्लक नहीं हो सकता। -जं. सं. 30-1-58/XI) गुल नारीलाल, रफीगंज १. प्रायश्चितचूलिका गाथा १५४ तथा टीका एवं प्र. सा. । ता. वृ । २१५ । प्रक्षेपक १० की टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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