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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७४५ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना । उसमें ज्ञान से अन्य भावों में ऐसा चेतना कि 'इसको मैं करता हैं' सो कर्मचेतना, और ज्ञान से अन्य भावों में ऐसा चेतना कि 'इसे मैं भोगता हैं' सो कर्मफलचेतना है। वह समस्त अज्ञानचेतना संसार का बीज है, क्योंकि संसार के बीजभूत आठ प्रकार के कर्म, उनका बीज वह अज्ञानचेतना है। इसलिये मोक्षार्थी पुरुष को प्रज्ञानचेतना का प्रलय करने के लिये सकल कर्मों के संन्यास ( त्याग ) की भावना को तथा सकल कर्मफल के संन्यास की भावना को नचाकर स्वभाव भूत ऐसी भगवती चेतना को ही सदा नचाना चाहिए । श्री प्रवचनसार गाथा १२४ तथा टीका में 'ज्ञानचेतना' में 'ज्ञान' शब्द का अर्थ इसप्रकार किया है "णाणं अठवियप्पो । टीका-अर्थविकल्पस्तावत् ज्ञानम् । तत्र कः खल्वर्थः, स्वपरविभागेनावस्थितं विश्वं, विकल्पस्तदाकारावभासनम्" अर्थ-प्रथम तो अर्थविकल्प ज्ञान है। वहाँ, अर्थ क्या है ? स्वपर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है। श्री पंचास्तिकाय गाथा ३९ की टीका में 'चेतना' शब्द का अर्थ इसप्रकार कहा है "चेतनानुभूत्युपलब्धि-वेदनानामेकार्थत्वात्।" अर्थात्-चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना ये सब एकार्थवाची हैं। इसी गाथा की टीका में ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के स्वामी बताये हैं "तत्र स्थावराः कर्मफलं चेतयते । त्रसाः कार्य चेतयते केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयत इति ।" अर्थ-स्थावरकायजीव कर्मफल को वेदन करते हैं, बस कर्म को वेदते हैं । केवलज्ञानी ज्ञान को वेदते हैं। नोट-स्थावर तो मिथ्याष्टि होते ही हैं, किन्तु स कहने से अभिप्राय त्रस-मिथ्यादृष्टि का है, क्योंकि, पंचास्तिकाय गाथा ३८ की टीका में "प्रकृष्टतर-मोहमलीमसेन" का शब्द दिया है तथा समयसार गाथा ३८७३८९ की टीका में 'कर्मचेतना' संसार का बीज कहा है। इसप्रकार बहिरात्मा के कर्म तथा कर्मफलचेतना और परमात्मा के ज्ञानचेतना कही गई है, परन्तु अन्तरात्मा के कौनसी चेतना होती है इसका कथन श्री पंचास्तिकाय में नहीं किया। इस सब कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अन्तरात्मा के भी ज्ञानचेतना होती है, किन्तु उसकी पूर्णता परमात्मा के होती है। अंतरात्मा जब बाह्यपदार्थ को जानती है तो उस पदार्थ के निमित्त से रागद्वेष होता है। रागद्वेष से कर्मबन्ध होता है, किंतु जब प्रात्मा स्वोन्मुख होती है ( स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्यव्यवसायः ॥६॥ अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ घटमहमात्मना वेद्मि ॥८॥ कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥ ९॥शब्दानुच्चाररोऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवतू ॥१०॥ परीक्षामुख प्रथम अध्याय ) उस समय तत्सम्बन्धी रागद्वेष न होने के कारण निविकल्प कहा है। इसलिये पंचाध्यायीकार ने यह कहा है कि उपयोगरूप ज्ञानचेतना निर्विकल्प है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि गृहस्थी के निर्विकल्पध्यान होता है, क्योंकि ज्ञानचेतना का अर्थ ध्यान नहीं है। इसप्रकार पंचाध्यायी तथा भावसंग्रह इन दोनों ग्रन्थों के कथन में विरोध नहीं है। -जं. सं 9-5-57/ ..." | र. ला. कटारिया, केकड़ी असंयत सम्यक्त्वी के शुक्लध्यान या निर्विकल्प समाधि नहीं होती शंका-धर्मध्यान व शुक्लध्यान तथा निर्विकल्पसमाधि अवस्था कौनसे गुणस्थान से प्रारम्भ होती है ? स्वानमति के समय अविरतसम्यग्दृष्टि के उपयुक्त तीनों अवस्थाओं में से कौनसी अवस्था होती है? समाधान-ध्यान का लक्षण तथा ध्याता का लक्षण इस प्रकार है "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचितानिरोधो ध्यानम् । एत्थगाहा जं थिरमज्झवसाणं तं भक्षणं जं चलंतयं चित्तं होइ भावणा व अशुपेहा वा अहव चिता।" [ धवल पु० १३ पृ० ६४ ] अयं - उत्तमसंहननवाले का एकाग्र होकर चिंता का निरोध करना ध्यान नाम का तप है। इस विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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