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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७४१ किन्तु करणानुयोग की अपेक्षा से शुद्धोपयोग उपशांतमोहादि गुणस्थानों में रहता है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में कषायोदय होने से शुद्धोपयोग नहीं हो सकता । मोक्षमार्गप्रकाशक अष्टम अध्याय में इसप्रकार कहा है-करणानुयोग विष तौ रागादिरहित 'शुद्धोपयोग' यथाख्यातचारित्र भए होय है, सो मोह का नाश भए स्वयमेव होगा। नीचली अवस्थावाला शुद्धोपयोग साधन कैसे करे । और द्रव्यानुयोगविर्ष शुद्धोपयोग करने का ही मुख्य उपदेश है, तातै यहाँ छद्मस्थ जिस काल विषै बुद्धिगोचरभक्ति आदि वा हिंसा आदि कार्यरूप परिणामनि को छुड़ाय आत्मानुभवन प्रादि कार्य विर्षे प्रवर्ते, तिस काल ताको शुद्धोपयोग कहिए। यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्म रागादिक हैं, तथापि ताकी विवक्षा यहाँ न कही; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोडि तिस अपेक्षा याको शुद्धोपयोगी कह्या है । यथाख्यातचारित्र भए तो दोऊ अनुयोग अपेक्षा शुद्धोपयोग है, बहुरि नीचली दशाविर्षे द्रव्यानुयोग अपेक्षा तो कदाचित् शुद्धोपयोग होय अर करणानुयोग अपेक्षा सदाकाल कषाय अंश के सद्भाव ते शुद्धोपयोग नाहीं। इसप्रकार दोनों अनुयोग अपेक्षा शुद्धोपयोग का कथन जान किसी एक अनुयोग अपेक्षा की हठ ग्रहण नहीं करना । यही समीचीन मार्ग है।. -जं. सं. 12-6-58/V/ दि. जैन पंथान, मुहारी वस्तुतः चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग व धर्मध्यान नहीं होते शंका-धर्मध्यान कौनसे गुणस्थान में होता है ? ___ समाधान-धर्मध्यान असंयत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थान से होता है । अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित मुनि के मुख्य रूप से होता है । "असंजबसम्मादिदि-संजबासंजद-पमत्तसंजव अप्पमत्तसंजय अपुग्वसंजब-अणियद्विसंजद-सुहमसापराइयखवगो. वसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होवि त्ति जिणोवएसावो।" ( धवल पु० १३ पृ० ७४) अर्थात-असंयतसम्यग्दष्टि के चतुर्थ गुणस्थान से सूक्ष्मसाम्परायसंयत दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है, ऐसा जिनदेव का उपदेश है । "मुख्योपचार-भेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ।" ( स्वा. का. गा. ४८७ को टीका) अर्थ-मुख्य और उपचार के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का है। अप्रमत्तों में मुख्य धर्मध्यान होता है और प्रमत्तों में उपचार धर्मध्यान होता है। अप्रमत्तगुणस्थानभूमिकं प्रमावजम् । पीत-पासल्लेश्या बलाधानमिहाखिलम् ॥५६॥५१॥ कालभावविकल्पस्थं धर्म्यध्यानं वशान्तरम । स्वर्गापवर्गफलवं ध्यातव्यं ध्यानतत्परः॥५६॥५२॥ हरिवंशपुराण अर्थ-'यह धर्मध्यान अप्रमत्तगुणस्थान में होता है', प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होता है। पीत, पप रूप शभ लेण्याओं के बल से होता है। काल और भाव के विकल्प में स्थित है तथा स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देनेवाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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