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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : (१) धर्मध्यान मोक्ष का ही कारण है (२) ध्यान अवस्था का स्वरूप (३) धर्मध्यान व शुक्लध्यान में कथंचित् भेद एवं कथंचित् अभेद (४) धर्मध्यान शुभोपयोगरूप है (५) शुभ परिणामों से भी कर्म-क्षय सम्भव है शंका-आठवें, नौवें, दसवेंगुणस्थानों में धर्मध्यान नहीं है । यदि है तो कैसे ? आगम प्रमाण क्या है ? समाधान-ध्यान चार प्रकार का है-(१) आतंध्यान (२) रौद्रध्यान (३) धर्म-ध्यान, (४) शुक्लध्यान । अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से ध्यान दो प्रकार का है। इनमें से आतंध्यान और रौद्रध्यान अथवा अप्रशस्तध्यान संसार का कारण है। धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान अथवा प्रशस्तध्यान मोक्ष का कारण है। पार्षप्रमाण इस प्रकार है-'आत रौद्रधयंशुक्लानि । परे मोक्षहेतू ॥२८॥' [तत्त्वार्यसूत्र] अर्थ-'आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान हैं। इनमें से अंत के दो ध्यान अर्थात् धर्मध्यान पौर शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु (कारण) हैं।' इसी की सामर्थ्य से यह भी सिद्ध हो जाता है कि शेष दो ध्यान अर्थात् आतं और रौद्रध्यान संसार के कारण हैं। यहां पर स्पष्टतया धर्मध्यान को मोक्ष का कारण कहा है अर्थात् धर्मध्यान को संसार का कारण नहीं कहा यानि धर्मध्यान से आस्रव-बंध नहीं होता। प्रशस्तेतरसंकल्पवशात्तद्भिद्यते द्विधा । इष्टानिष्टफलप्राप्ते/जभूतं शरीरिणाम ॥१७॥ आतंरौद्रविकल्पेन दुनिं देहिनां द्विधा । द्विधा प्रशस्तमप्युक्त धर्मशुक्लविकल्पतः ॥२०॥ स्यातां तत्रातरौद्र दुर्ध्यानेऽत्यन्त दुःखदे । धर्मशुक्ले ततोऽन्ये द्वे कर्म-निर्मूलनक्षमे ॥२१॥ [ज्ञानार्णव पृ. २५६ सर्ग २५] अर्थ-पूर्वोक्त ध्यान प्रशस्त अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है, सो जीवों के इष्ट अनिष्टरूप फल की प्राप्ति का बीजभूत (कारणस्वरूप) है ॥१७॥ जीवों के अप्रशस्तध्यान प्रार्त और रोद्र के भेद से दो प्रकार का है तथा प्रशस्तध्यान भी धर्म और शुक्ल के भेद से दो प्रकार का कहा गया है ॥२०॥ उक्त ध्यानों में आर्त-रौद्र ये दो अप्रशस्तध्यान अत्यन्त दुःख देने वाले हैं। और उनसे भिन्न धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्तध्यान कर्म को निमल करने में समर्थ हैं ॥२१॥ इस श्लोक २१ से इतना स्पष्ट हो जाता है कि धर्मध्यान से कर्मों का क्षय होता है। मोहनीय कर्म का क्षय धर्मध्यान से होता है । अतः दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है। धर्मध्यान का विषय, काल, स्वामी, फल का कथन धवल पुस्तक १३ पृ०७४, ७५, ७६, ७७, ८०, ८१ पर निम्न प्रकार है किंबहसो सव्वं चि य जीवादिपयथवित्थरो वेयं । सम्वणयसमूहमयंज्झायजो समयसम्भावं ।।४९॥ [धवल १३ पृ. ७३, ध्यानशतक गाथा ५६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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