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________________ ७३२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसकी टीका में कहा-'जो वास्तव में अरहंत को द्रव्यरूप से गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है वह वास्तव में अपने प्रात्मा को जानता है, क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है। अरहंत का स्वरूप, अन्तिम ताव को प्राप्त सोने की भांति, परिस्पष्ट है, इसलिये उसका ज्ञान होने पर सर्व प्रात्मा का ज्ञान होता है।' शद्धात्मा के अवलम्बन बिना असंयतसम्यग्दृष्टि का चित्त ठहरना कठिन है अतः उसको श्री अरहंत भगवान का चितवन करना चाहिये। स्व प्रात्मा का चितवन करो या श्री अरहंत भगवान का चितवन करो, असंयतसम्यग्दृष्टि के लिये इन दोनों के चितवन में कोई विशेष भेद नहीं है। दोनों का फल शुभोपयोग है। -जं. ग. 25-4-63/IX/ ब्र. पन्नालाल जैन भद्रध्यान एवं धर्मध्यान शंका-पांचवें गुणस्थान में क्या धर्मध्यान नहीं होता? भद्रध्यान पांच गुणस्थान में किस प्रकार है ? समाधान-यह ठीक है कि धर्मध्यान का स्वामी संयतासंयत जीव भी है, (धवल पु. १३ पृ. ७४ ) किंतु गृहस्थ के गृह सम्बन्धी कार्यों की निरन्तर चिता रहने से उनका उपयोग स्थिर नहीं हो पाता (भावसंग्रह गाथा ३५७ व ३८३-३८५)। अंतरंग और बहिरंग परिग्रहत्यागी ध्याता होता है (धवल पु. १३ पृ.६५)। इसप्रकार का धर्मध्यान अप्रमत्त गुणस्थान में होता है, प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होता है ( हरिवंश पुराण ५६५१-५२)। भद्दस्स लक्खणं पुण धम्मं चितेह भोयपरिमुक्को। चितिय धम्म सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए ॥६६५॥ [भावसंग्रह] अर्थ-भद्र ध्यान का लक्षण-जो जीव भोगों का त्याग कर धर्म का चितवन करता है। धर्म का चितवन हआ भी फिर भी अपनी इच्छानुसार भोगों का सेवन करता है उसके भद्रध्यान समझना चाहिए। -. ग. 7-11-66/VII) ताराचन्द हीन संहनन वालों के ध्यान की स्थिति शंका होनसंहननवालों का ध्यान कम से कम कितने समय तक स्थिर रह सकता है ? समाधान-हीनसंहननवालों का ध्यान अधिक से अधिक एक आवलि से कम काल तक स्थिर रह सकता है और कम से कम दो चार समय ध्यान रह सकता है। -जे. ग. 16-5-63/IX/ो. म. ला. जैन ध्यान का स्वामी शंका-क्या मुनि ही ध्यान के पात्र होते हैं ? समाधान-मुक्ति के कारणस्वरूप ध्यान की सिद्धि उन मुनीश्वरों के ही होती है जो प्रशान्तात्मा हैं, जिनका नगर पर्वत है, पर्वत की गुफायें वसतिका (गृह) हैं, पर्वत की शिला शय्या है, चन्द्रमा की किरणें दीपक हैं, मृग सहचारी हैं, सर्वभूत-मैत्री कुलीन स्त्री है ( ज्ञानार्णव अध्याय ५)। -जं. ग. 4-7-63/IX/ ब्र. सुखदेव १. से धर्मध्यान चतुर्थगुणस्थान से दसमगुणस्थान तक होता है। [धवल. १३/७४ ] परन्तु यहां उत्कृष्ट ध्यान की-मक्ति के कारणस्वरूप ध्यान की अपेक्षा से उत्तर दिया गया है, ऐसा जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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