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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७२६ समाधान-धर्मध्यान के चार भेद हैं-१. प्राज्ञाविचय २. अपाय या उपाय विचय ३. विपाकविचय ४. संस्थानविचय । इन चारों का स्वरूप इसप्रकार है सर्वज्ञाज्ञां पुरस्कृत्य सम्यगान विचिन्तयेत । यत्र तद्ध यानमाम्नातमाज्ञाख्यं योगिपुङ्गवः ॥३३/२२॥ जिस ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा को अग्रेसर ( प्रधान ) करके पदार्थों को सम्यकप्रकार चितवन करें सो मुनीश्वरों ने आज्ञाविचय नाम धर्मध्यान कहा है। अपायविचयं ध्यानं तद्वदन्ति मनीषिणः । अपायः कर्मणां यत्र सोपायः स्मर्यते बुधैः ॥३४॥१॥ ( ज्ञानार्णव ) जिस ध्यान में कर्मों का अपाय ( नाश ) हो तथा सोपाय कहिये पंडित जनों करके इसप्रकार जिसमें चिन्तवन किया जाय कि इन कर्मों का नाश किस उपाय से होगा उस ध्यान को बुद्धिमान पुरुषों ने अपायविचय धर्मध्यान कहा है। स विपाक इति ज्ञेयो यः स्वकर्मफलोदयः। प्रतिक्षणसमुद्भ तश्चित्ररूपः शरीरिणाम् ॥३५॥१॥ [ ज्ञानार्णव ] इत्थं कर्म कटुप्रपाककलिताः संसारघोराणवे, जीवा दुर्गतिदुःखवाडवशिखासन्तानसंतापिताः। मृत्यूत्पत्तिमहोमिजालनिचिता मिथ्यात्ववातेरिताः, क्लिश्यन्ते तदिदं स्मरन्तु नियतं धन्याः स्वसिद्ध्यथिनः ॥३॥३१॥ प्राणियों के अपने उपार्जन किये कर्म के फल का जो उदय होता है, वह विपाक जानना चाहिये । संसारीजीवों के कर्म प्रतिक्षण उदय होता है जो ज्ञानावरण आदि अनेकरूप हैं। इसप्रकार भयानक संसाररूप समुद्र में जो जीव हैं वे ज्ञानावरण आदि कर्मों के तीव्रोदय (कटुपाक) से संयुक्त हैं । वे दुर्गति के दुःखरूपी बड़वानल की ज्वाला के संताप से संतापित हैं तथा मरण-जन्मरूपी बड़ी लहर के समूह से परिपूर्ण भरे हैं, मिथ्यात्वरूप पवन के प्रेरे हुए क्लेश भोगते हैं। जो पुरुष धन्य हैं वे अपनी मुक्ति की सिद्धि के लिए इस विपाक-विचय ( कर्मों के उदयरूप विपाक का चितवन ) धर्मध्यान का स्मरण करें। समस्तोऽयमहो लोकः केवलज्ञानगोचरः । तं व्यस्तं वा समस्तं वा स्वशक्त्या चिन्तयेद्यतिः ॥ ३६।१८४ [ज्ञाना०] यह समस्तलोक केवलज्ञानगोचर है तथापि संस्थान विचय धर्मध्यान में मुनि सामान्य से समस्तलोक के आकार का तथा ऊर्ध्वआदि लोक के भिन्न-भिन्न आकार को अपनी शक्ति के अनुसार चिन्तवन करता है । द्रव्याधु त्कृष्टसामग्री मासाद्योग्रतपोबलात् । ___कर्माणि घातयन्त्युच्चस्तुर्य-ध्यानेन योगिनः ॥३५॥२८॥ [ज्ञानार्णव] योगीश्वर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव की उत्कृष्टसामग्री को प्राप्त होकर उग्रतप के बलसे चौथे संस्थान . विचय धर्मध्यान के द्वारा कर्मों को अतिशयता के साथ नष्ट करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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