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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान - सामायिक में स्थित श्रावक के सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के हिंसा आदि पापों का त्याग हो जाने से यद्यपि महाव्रत कहा है तथापि यह कथन उपचार से है, क्योंकि उसके महाव्रत को पात करने वाली प्रत्याख्यानरूप चार कषायों का उदय पाया जाता है ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ७ सूत्र २१ ) । ७१४ ] जिस समय तक वस्त्र आदि उतारकर केशलोंच आदि करके गुरु से मुनिदीक्षारूप महाव्रत ग्रहण नहीं करता उस समय तक वह पुरुष महाव्रती नहीं हो सकता । यद्यपि वस्त्र आदि परद्रव्य है तथापि महाव्रत के लिए उनका त्याग अनिवार्य है क्योंकि, वस्त्र आदि का भाव असंयम के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है ( धवल पु. १ पू. ३३३ ) । समयसार गाया २६३ २८५ की टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा है कि 'परद्रव्य ही आत्मा के रागादि भावों के निमित्त हैं और ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादि का अकारक ही है। तथापि जब तक निमित्तभूत परद्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तब तक नैमित्तिकभूत रागादिभावोंका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता ।' अतः वस्त्रादि के त्याग किये बिना, महाव्रत नहीं हो सकते और जब महाव्रत नहीं हो सकते तो मोक्ष कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता जो बाह्य निमित्त कारणों को अकिचित्कर मानते हैं उनके मत से वस्त्र आदि का त्याग किये बिना भी मोक्ष हो जाता है। जिनके आजन्म से ये संस्कार रहे हैं कि सवस्त्र मुक्ति होती है क्योंकि परद्रव्य अकिंचित्कर है, व आज भी पूर्व संस्कार वश निमित्तकारणों को अकिचित्कर कहकर मात्र आत्मयोग्यता से ही मुक्ति मानते हैं । चौघे गुणस्थान वाले के सामायिक के समय भी सातवां गुणस्थान नहीं हो सकता है, क्योंकि उसके अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय पाया जाता है और इन दोनों कषायों का उदय आत्मा के संयमभाव का घातक है । सामायिक के समय बातचीत नहीं करनी चाहिए शंका- सामायिक के समय धावक को बात करनी चाहिए या नहीं ? क्योंकि अवलम्बन से श्रावक का मन स्थिर रह सकता है । - जं. ग. 12-12-63 / 1X / प्रकाशचन्द समाधान - सामायिक के समय धावक को बातचीत नहीं करनी चाहिए। उस समय मन, वचन, काय को स्थिर रखना चाहिये । बात करने से मन, वचन व काय स्थिर नहीं रहते हैं । अतः सामायिक के समय मौन रहना चाहिए। कहा भी है आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये च दान्तिवत् । मौनं कुर्वीतशश्वद्वा, भूयो वाग्दोषविच्छिदे ॥ ( सा. ध. अ. ४ / ३८ ) वमन की तरह सामायिक आदि छह आवश्यक कर्मों में, मलमूत्र के क्षेपण करने में, पापकार्यों में ( मैथुनादिक में ), तथा स्नान व भोजन में मौन रखे अथवा वचन सम्बन्धी बहुत से दोषों को दूर करने के लिए निरन्तर ही मौन करे । Jain Education International मन को स्थिर रखने के लिए अवलम्बन की आवश्यकता है, क्योंकि आवक का मन बिना अवलम्बन के स्थिर नहीं रह सकता है। गृहस्थ को सदाकाल बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह परिमितरूप से रहते हैं तथा श्रारम्भ भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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