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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७०७ हैं ॥ ४॥ जिनेन्द्र देव की पूजा, निर्ग्रन्थ गुरुओं को सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छहकर्म गृहस्थों को प्रतिदिन करने के हैं ॥ ७॥ धर्मात्मा गृहस्थों को एकदेशव्रत के अनुसार संयम भी अवश्य पालना चाहिए जिससे उनका किया हुआ वत फलीभूत होवे ॥ २२ ॥ यहाँ पर गृहस्थी शब्द से अभिप्राय पञ्चमगुणस्थानवर्ती का है। और पञ्चमगुणस्थानवर्ती गृहस्थी को ही श्रावक संज्ञा है । "श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती भए होय है" मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ८, पत्र ४०२ ( सस्ती ग्रन्थमाला)। श्रावकधर्म में ग्यारह प्रतिमा हैं। प्रथम प्रतिमावाला 'दर्शन श्रावक' कहलाता है उसका स्वरूप इसप्रकार है पंचुबरसहियाई परिहरे इय जो सत्त विसणाई । सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ॥२०५।। वसु. श्रावकाचार अर्थ-सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है बुद्धि जाकी ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बर फल सहित सातों ही व्यसनों का स्याग करता है, वह दर्शन श्रावक कहा गया है ॥ ५७ ।। "बहुतससमण्णिदं जं मज्जं मंसादिणिदिदं दध्वं । जोण य सेववि णियमा सो दंसण सावओ होवि ।।२२८॥ स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थ-बहत वस जीवनि के घातकरि तथा तिनकरि सहित जो मदिरा तथा अति निन्दनीक जो मांस आदि द्रव्य तिनि जो नियम तें न सेवे सो दर्शन श्रावक है। इन सब आगम प्रमाणों से यह सिद्ध है कि चतुर्थगुणस्थानवर्ती अर्थात् अव्रत सम्यग्दृष्टि की श्रावक संज्ञा नहीं है। पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यंच की भी श्रावक संज्ञा नहीं है, क्योंकि वह गृहस्थ नहीं है। पंचमगुणस्थानवर्ती मनुष्य की श्रावक संज्ञा है। यदि यह कहा जावे कि पाक्षिक श्रावक प्रव्रती है फिर भी उसको श्रावक संज्ञा है। सो यह ठीक नहीं है पाक्षिक का भेद सर्वप्रथम श्री जिनसेन आचार्य ने किया है और इसका स्वरूप इसप्रकार कहा है "तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्सन-हिंसा विवर्जनम् । मैत्री-प्रमोद कारुण्य माध्यस्थैरूपवृहितम् ॥ १४६ ॥" महापुराण सर्ग ३९ अर्थ-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थभाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ। समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष कहलाता है । अहिंसावत में अन्य चार व्रत भी आ गये ( देखो पुरषार्थसिद्धयुपाय ) अतः पाक्षिक श्रावक भी अव्रती नहीं है । -जैनसन्देन 16-5-57/.../ रतनलाल कटारिया; केकड़ी अस्पय॑ शूद्र अणुव्रती हो सकता है शंका-अस्पये शूद्र व्रत कहाँ तक और किस मर्यादा से धारण करता है ? समाधान-रायचन्द्र ग्रंथमाला से प्रकाशित श्री प्रवचनसार पृष्ठ ३०५ पर दीक्षाग्रहण योग्य वर्णव्यवस्था का कथन करते हुए गाथा १५ में 'वण्णेसु तीसु एक्को' का अर्थ श्री जयसेन आचार्य ने इसप्रकार किया है 'वर्णेषु विष्वेकः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यवर्णेष्वेकः' अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण वाले दीक्षा ग्रहण के योग्य हैं। प्रायश्चित्तचूलिका गाथा १५४ में 'कारु शूद्र के दो भेद, भोज्य और अभोज्य तथा उनमें से भोज्य शद्र को क्षुल्लक व्रत देना चाहिये', ऐसा लिखा है। इसकी संस्कृत टीका में इसप्रकार कहा है-'जिनके हाथ का अन्न-पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्य कारु कहते हैं। इनसे विपरीत प्रभोज्य कारु जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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