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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६९९ प्रकार का चिह्न धारण करना चाहिए। इनका निर्णय पहले हो चुका है ।। १६६।। जो लोग अपनी योग्यता के अनुसार तलवार आदि शस्त्रों के द्वारा, स्याही अर्थात् लेखनकला के द्वारा, खेती और व्यापार के द्वारा अपनी आजीविका करते हैं ऐसे सद्दष्टि द्विजों को वह यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए ॥१६७। जिसके कुल में किसी कारण से दोष लग गया हो ऐसा पुरुष भी जब राजा आदि की सम्मति से अपने कुल को शुद्ध कर लेता है तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा धारण करने के योग्य कुल में उत्पन्न हुए हों तो उसके पुत्र, पौत्र आदि संतति के लिए यज्ञोपवीत धारण करने की योग्यता का कहीं निषेध नहीं है ॥१६८-१६९।। जो दीक्षा के अयोग्य कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा नाचना, गाना आदि विद्या और शिल्प से अपनी आजीविका करते हैं ऐसे पुरुषों को यज्ञोपवीत आदि संस्कारों की माज्ञा नहीं है ॥१७०।। किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण करें तो उनके योग्य यह चिह्न हो सकता है कि वे संन्यासमरण में एक धोती पहनें।।१७१॥ यज्ञोपवीत धारण करनेवाले पुरुषों को मांसरहित भोजन करना चाहिए, अपनी विवाहिता कुल-स्त्री का ही सेवन करना चाहिए। अनारम्भी हिंसा का प्रभक्ष्य तथा अपेय पदार्थों का परित्याग करना चाहिए ॥१७२।। इसप्रकार जो द्विज व्रतों से पवित्र हई अत्यन्त शुद्ध वृत्ति को धारण करता है उसके व्रतचर्या की पूर्ण विधि समझनी चाहिए।" इस महापुराण आगम के उक्त श्लोकों द्वारा शास्त्रीजी की सब बातों का उत्तर हो जाता है। उक्त आगम में यह कहीं पर नहीं कहा गया है कि यज्ञोपवीत का विधान वैदिक-संस्कारों के प्रभाव में आकर किया जारहा है। किन्तु सर्ग ४० श्लोक १५८ में 'गणधरदेव द्वारा कहा हुआ व्रतों का चिह्न' ऐसा लिखा है। क्या उस समय के वीतरागी निम्रन्थ मुनि भी किसी बात को अपने मन से लिख कर और ऐसा लिख दें कि यह गणधरदेव द्वारा कहा हआ है। यदि महापुराण के कर्ता आचार्य के विषय में शास्त्रीजी ऐसा विचार सकते हैं तो अन्य आचार्यों के विषय में भी ऐसा विचार हो सकता है। इसप्रकार कोई भी ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं ठहरेगा। प्रमाण दो प्रकार कहे हैं एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष । परोक्षप्रमाण 'स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम' पांच प्रकार का है। अर्थात् आगम भी प्रमाण है ( परीक्षामुख )। महापुराण आगम होने से स्वयं प्रमाण है। एकप्रमाण दूसरेप्रमाण की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था का प्रसंग आता है। ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवस्थापसंगादो। षट्खंडागम १४, पत्र ३५०, ५०७ । महापुराण ग्रन्थ महान् द्वारा रचित है उसके कथन के विषय में अप्रमाणता की आशंका करना उचित नहीं है। श्री वीरसेन स्वामी ने स्वयं आगम का प्रमाण दे-देकर अपने कथन को सिद्ध किया है । अतः यज्ञोपवीत के विषय में महापुराण आगम का प्रमाण ही पर्याप्त है, अन्य प्रमाण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। 'यदि कहा जाय कि युक्ति विरुद्ध होने से यह आगम ही नहीं है, तो ऐसा कहना शक्य नहीं है, क्योंकि जो युक्ति सूत्र के विरुद्ध हो वह वास्तव में युक्ति ही नहीं है । इसके अतिरिक्त अप्रमाण के द्वारा प्रमाण को बाधा भी नहीं पहुँचायी जा सकती, क्योंकि वैसा होने में विरोध है ।' ( षट्खंडागम पुस्तक १२, पृष्ठ ३९९-४००) -जनसंदेश 1/8/57 जैनधर्म डॉक्टरी पढ़ने की सम्मति नहीं देता शंका-डॉक्टरी पढ़ना और करना चाहिए या नहीं इसमें जैनधर्म क्या सम्मति देता है ? समाधान-डाक्टरी पढ़ने में मेंढ़क आदि जीवित ( जिन्दा ) जानवरों को चीरना पड़ता है जिसमें संकल्पी हिंसा होती है । जैनधर्म अहिंसामयी है। स्व और पर दोनों की हिंसा का त्याग 'अहिंसा' है। श्रावक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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