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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६७ 'विधान प्रादि से कार्य सिद्धि' आगमानुकल है शंका-प्रथमानुयोग ग्रंथों में इस प्रकार जो वर्णन आता है कि मनोरमा आदि महिलाओं ने जो कार्य को सिद्धि हेतु विधान किया था और उस विधान से कार्य की सिद्धि हो गई । क्या यह कथन आगमानुकूल है ? समाधान-यह कथन प्रागम के अनुकूल है, क्योंकि प्रथमानुयोग स्वयं द्वादशांगरूप जिनवाणी का एक अभिन्न अंग है । द्वादशांग के १२वें दृष्टिवाद अंग के ५ भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका। इनमें से पूर्वगत के १४ भेद हैं जिनमें से १०वां विद्यानुवादपूर्व है जिसमें अंगुष्ठप्रसेना आदि ७०० अल्पविद्या तथा रोहिणी आदि ५०० महाविद्याओं का स्वरूप सामर्थ्य मन्त्र, तन्त्र, पूजा-विधान आदि का तथा सिद्धविद्याओं का फल और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यन्जन, छिन्न इन आठ महानिमित्तों का वर्णन है (देखो-राजवातिक अध्याय १ सत्र २० की टीका में वातिक १२) -प्दै. ग. 5-1-78/VIII/ शान्तिलाल जैन रोट तीज व्रत विधान शंका-रोट तीज व्रत का क्या विधान है ? समाधान-भादों सुदी तीज को उपवास करके चौबीस तीर्थंकरों के ७२ कोठे का मंडल मांडकर तीनचौबीसी पूजा-विधान करें और तीनों काल १०८ जाप ( ओम् ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्कालसम्बन्धीचतुर्विंशतितीर्थकरेभ्यो नमः) इस मंत्र को जपें। रात्रि का जाप करके भजन व धर्मध्यान में काल बितावें। इस प्रकार तीनवर्ष तक यह व्रत कर, पीछे उद्यापन करें। उद्यापन करने के समय तीन-चौबीसी का मण्डल मांडकर बड़ा विधान पूजन करें और प्रत्येक प्रकार के उपकरण तीन-तीन श्री जिनमंदिरजी में भेंट करें। चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान देवें। शास्त्र लिखाकर बांटें। यह रोट तीज व्रत का विधान है। इसको त्रिलोक तीज व्रत भी कहते हैं।' -जं. सं. 29-1-59/V/ घा. ला. जैन, अलीगढ़-टॉक शुभ मुहूर्त में कार्य करना. मिथ्यात्व नहीं है। शंका-यात्रा आदि के प्रस्थान के समय दिन व तिथि आदि का विचार कर प्रस्थान करना क्या मिथ्यात्व है? समाधान-मात्रा आदि के लिये शुभ दिन-तिवि-मुहूर्त में प्रस्थान करना चाहिये । अतः इसका विचार मिथ्यात्व नहीं है। सग्रन्थ को गुरु मानना, रागीद्वषी असंयमी के द्वारा बनाई हई पुस्तकों को, जिनमें एकान्त का पोषण हो, धर्म शास्त्र मानकर स्वाध्याय करना, दया में वर्म न मानना यह सब तो मिथ्यात्व है, किन्तु मुहर्त विचार मिथ्यात्न नहीं है। -ज.ग. 11-7-66/IX/कस्तूरचन्द १. प्रतविधानसंग्रह १०६ भी द्रष्टव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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