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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६९५ अर्थ-जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किंतु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है। "चारित गस्थि जदो, अविरदअंतेसु ठाणेसु ॥१२॥" गो० जी० अर्थ-चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त चारित्र नहीं होता है। समेतमेव सम्यक्त्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम् । स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थके ॥५४३॥ अर्थ-सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान से सहित होते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान चतुर्थ गुणस्थानों में सम्यक् चारित्र बिना भी होते हैं। . रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) ही मोक्ष मार्ग है अतः जो असंयत है उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। श्री कुन्दकुन्द आचार्य तथा श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा है "सहहमाणो अत्थे असंजदा वा ण णिवादि ॥२३९॥" प्रवचनसार संस्कृत टीका-असंयतस्य च यथोदितात्मत्तत्त्व प्रतीतिरूप श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा किं कुर्यात् । ततः संयमशून्यात श्रद्धानात् ज्ञानद्वानास्ति सिद्धिः। अत आगमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धान संयतत्वानाम योगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतव ॥ अर्थ-पदार्थों का श्रद्धान करने वाला यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है। यथोदितआत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान व यथोदित-आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत को क्या करेगा ? अर्थात् कुछ नहीं करेगा, क्योंकि पागमज्ञान तत्त्वार्थ-श्रद्धान संयतत्व के अयुगपत् वाले के मोक्षमार्ग घटित नहीं होता है। मलाचार की टीका में श्री वसुनन्दि आचार्य सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने कहा है कि यदि असंयत सम्यग्दृष्टि तप भी करे तो भी उसके जितनी कर्म निर्जरा होती है उस कम निर्जरा से अधिकतर व दृढतर कर्मों को असंयम के कारण बांध लेता है। "तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं ग्राति कठिनं च करोतीति ।" इसलिये श्री अकलंक देव ने राजवातिक में कहा है कि जिस प्रकार सम्यग्ज्ञान के बिना आचरण पालने वाला संसार में दुःख उठाता है उसी प्रकार चारित्र रहित सम्यग्ज्ञानी भी संसार में दुःख भोगता है। हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हताचाज्ञानिनां क्रिया। धावन किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः॥ वन में अग्नि लग जाने पर जिस प्रकार अंधा मार्ग न जानने से नष्ट होता है दुःख उठाता है और स्वांखालँगडा मार्ग जानते हए भी न चलने के कारण कष्ट उठाता है दुःख भोगता है। उसी प्रकार ज्ञान रहित आचरण करने वाला और चारित्र रहित सम्यग्ज्ञानी दोनों संसाररूपी वन में दुःख भोगते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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