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________________ ६८६ [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । देवपूजा, पात्रदान व स्वाध्याय से पूर्व स्नान आवश्यक है शंका-गृहस्थ को देवपूजन, स्वाध्याय व पात्रदान से पूर्व स्नान करना आवश्यक है या नहीं। यदि बीमारी के कारण गृहस्थ स्नान न करे तो क्या वह पूजन आदि नहीं कर सकता है ? समाधान-रात्रि को निद्रा लेने के कारण और सुबह को शौचादि क्रिया के कारण गृहस्थ का शरीर अपवित्र रहता है। गृहस्थ के पांच पापों का सर्वथा त्याग भी नहीं है जिसके कारण उसका मन भी पवित्र नहीं रहता है इसलिए गृहस्थ को स्नान करके ही शरीर और मन की शुद्धिपूर्वक स्वयं पूजन करनी चाहिए। इस विषय में श्री भावसंग्रह ग्रंथ में इस प्रकार कहा है फासुय जलेण एहाइय णिवसिय वत्थाई गंपि तं ठाणं । इरियावहं च सोहिय, उवविसियं पडिम आसेण ॥४२६॥ अर्थ-पूजा करने वाले गृहस्थ को सबसे पहले प्रासुक जल से स्नान करना चाहिए, फिर शुद्ध वस्त्र पहन कर पूजा करने के स्थान पर जाना चाहिए तथा जाते समय ईर्यापथ शुद्धि से जाना चाहिए वहां जाकर पद्मासन से बैठना चाहिए। देव, शास्त्र व गुरु महान् पवित्र हैं अतः देवपूजा, शास्त्रस्वाध्याय तथा पात्रदान के लिये मन, वचन व काय की शुद्धता की प्रावश्यकता है। काय की शुद्धता के लिये स्नान व शुद्ध वस्त्र होने चाहिये। यदि बीमारी के कारण गृहस्थ स्नान नहीं कर सकता तो उसको स्वयं पूजन न करके दूसरों के द्वारा पूजन कराना चाहिए और पूजन की अनुमोदना करनी चाहिए। स्वयं शास्त्र स्वाध्याय न करके दूसरों से शास्त्र मानना चाहिये। स्वयं पात्रदान न देकर दूसरों के द्वारा दिये गये पात्रदान की अनमोदना करनी चाहिये। बिना स्नान किये गृहस्थ के पूजन आदि करने से शास्त्राज्ञा का उल्लंघन होता है। गृहस्थ के आरम्भ आदि का त्याग न होने से स्नान का भी त्याग नहीं है। अतः गृहस्थ को प्रतिदिन प्रातः स्नान करना चाहिए और स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन कर प्रतिदिन पूजन करनी चाहिए। पूजन करते समय देव के गुणों का स्मरण होता है जिससे कर्मों का संवर व निर्जरा होती है। जिनपूजा का फल मोक्षसुख है। कहा भी है स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीतिः, स्तोता भव्यप्रसन्नधीः । निष्ठितार्थो भवांस्तुत्यः, फलं नश्रेयसं सुखम् ॥ श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् अर्थात-महान् पुरुषों के गुणों का स्मरण करना स्तुति है। भक्तिभाव से भरा हुआ भव्य पुरुष स्तोता है। जिन पवित्र स्तोत्रों के द्वारा प्रभु की स्तुति की जाती है, वे प्रभु अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु हैं। स्तुति का फल निःश्रेयस् ( मोक्ष ) सुख है। -नं. सं. 17-10-57/ | ज्यो. ० सुरसिने वाले गहस्थों को अंग-पूर्व पढ़ने का अधिकार नहीं है शंका-क्या गृहस्थी अंगज्ञानी हो सकता है ? समाधान-धवल पु०९ पृ० ७० पर लिखा है कि एक अंगधारी को भी इसी सूत्र द्वारा नमस्कार किया गया है। तो क्या वहाँ गृहस्थ को नमस्कार किया गया है ? नहीं। बसूनन्दिश्रावकाचार में ग्रहस्थ को सिद्धान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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