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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६७१ अर्थ – जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है | ६ | जो विवेकी जीव भावपूर्वक सिद्धों को नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है |९| वह शीघ्र मोक्ष इसप्रकार के गुणों से युक्त पंचपरमेष्ठियों को जो विशुद्ध परिणामों से नमस्कार करता को प्राप्त करता है । १७ । सर्वार्थसिद्धि में श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं "चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धनी क्रिया सम्यक्त्वक्रिया ।" अर्थ – चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा श्रादिरूप क्रिया सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली है, अतः सम्यक्त्वक्रिया है सर्वज्ञोपदेश अनुसार कहे गये इन श्रार्षं वचनों से यह सिद्ध हो जाता है कि जिनेन्द्र-भक्ति से संवर, निर्जरा, कर्मों का क्षय तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस पंचमकाल में संहनन व बुद्धि की हीनता के कारण विशेषचारित्र तथा विशेष श्रुतज्ञान नहीं हो सकता, इसलिये जिनेन्द्रभक्ति ही क्रमसे मुक्ति का कारण है, क्योंकि पंचमकाल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के साक्षात् मुक्ति का अभाव है । कहा भी है सर्वागमादगमतः खलु तत्वबोधो, मोक्षाय वृत्तमपि संप्रति दुर्घटं नः । जाड्यातथा कुतनुतस्त्वयि भक्तिरेव, बेवास्ति संव भवतु कमतस्तदर्थम् ८७१। पं. नं. पं. अर्थ - हे देव ! मुक्ति का कारणभूत जो तत्त्वज्ञान है वह निश्चयतः समस्त आगम के जान लेने पर प्राप्त होता है, सो जड़बुद्धि होने से वह हमें दुर्लभ ही है । इसी प्रकार उस मोक्ष का कारणीभूत जो चारित्र है वह भी शरीर की दुर्बलता से इस समय हमें नहीं प्राप्त हो सकता है। इस कारण आप के विषय में जो मेरी भक्ति है वही क्रम से मुझे मुक्ति का कारण होवे । चारित्र यदभाणि केवलदृशा देव स्वया मुक्तये, पुंसां तत्खलु मादृशेन विषमे, काले कलौ बुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि हढ़ा पुण्यैः पुरोपार्जितः, संसारार्णवतारेण जिन ततः संवास्तु पोतो मम ॥ ५४४ ॥ पं. नं. पं. अर्थ - हे जिनदेव केवलज्ञानी ! श्रापने जो मुक्ति के लिए चारित्र बतलाया है, उस चारित्र को मुझ जैसा इस विषम पंचम काल में धारण नहीं कर सकता है। इसलिये पूर्वोपार्जित महान् पुण्य से जो मेरी आपके विषय में बढ़ भक्ति है वही मुझे इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान होवे | Jain Education International दिट्ठ तुमम्मि जिणवर, दिट्ठिहराते समोहतिमिरेण । तह णट्ठ जह दिट्ठ जहद्वियं तं मए तच्छं ।। ७४३ ॥ पं. नं. पं. अर्थ - हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर सम्यग्दर्शन में बाधा पहुँचाने वाला समस्त दर्शन मोहरूपी अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया है जिससे मैंने यथावस्थित तत्वों को देख लिया है अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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