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________________ ६५२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तारः करनी चाहिए ॥४२५।। विशेष पुण्य को उपार्जन करने के लिये अणुव्रतों तथा शीलव्रतों का पालन करना चाहिए और नियमपूर्वक निरन्तर दान देना चाहिए ॥४८॥ आचार्य श्री देवसेन विरचित भावसंग्रह । __इसप्रकार प्रागम से सिद्ध है कि सम्यग्दृष्टिश्रावक को पूजन, दान, आदि अवश्य करने चाहिए, क्योंकि ये भी मोक्ष के कारण हैं। .ग. 5-12-63/IX/ प्रकाशचन्द दानादि क्यों करने चाहिए ? शंका-आत्मा तो खाता ही नहीं है ऐसा आगम में लिखा है, तब यह दानावि क्यों करना चाहिए ? समाधान-जिस नय की दृष्टि से 'प्रात्मा खाता नहीं' ऐसा आगम में लिखा है उस नय की दृष्टि से आत्मा आहारादि का दान भी नहीं करता है। वह दृष्टि शुद्ध निश्चयनय की है। जो आत्मा की शुद्ध अवस्था का कथन करती है। किन्तु अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में आत्मा कर्मों से बद्ध होने के कारण अशुद्ध हो रहा है। कर्मों के उदय का निमित्त पाकर आत्मा रागद्वेष भी करता है और औदारिक आदि शरीरों को धारण करता है। अशुद्ध होने के कारण प्रात्मा के अनादिकाल से आहार, निद्रा, भय, मैथुन ये चार संज्ञायें लगी हुई हैं। आत्मा के इन्द्रिय बल, आयु, श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण भी हैं। इन प्राणों की रक्षा के लिये कर्मोदय के कारण स्वयं आहार ग्रहण करता है और आहारदान देकर दूसरों के प्राणों की रक्षा करता है । आहार आदि दान देने में परद्रव्य से ममत्व भाव ( मु. ) का त्याग होता है । इसप्रकार व्यवहारनय की दृष्टि में प्रात्मा खाता भी है और आहारदान आदिक भी करता है। यदि आत्मा खाता ही नहीं तो प्रवचनसार के चरित्र अधिकार में मुनियों के लिए आहार ग्रहण करने का और श्रावकों के लिए दान का उपदेश श्री कुन्दकुन्दाचार्य क्यों देते ? -जं. सं. 20-12-56/VI/ मो. ला. उरसेवा कौनसा दान-उत्तम ? शंका-चार प्रकार के दान में से कौनसा दान उत्तम है ? विस्तार सहित समझाएँ। समाधान-चारों प्रकार के दान ही उत्तम हैं । एक दान से अन्य तीन दान भी हो जाते हैं। आहार देने से प्राहारदान तो स्वयं हो जाता है । क्षुधारूपी रोग आहार से शान्त हो जाता है अतः पाहार देने से औषधदान भी बन जाता है। आहारदेने से मैत्री भाव होता है। मैत्री भाव के द्वारा अभयदान होता है। आहार से इन्द्रियां व मन ज्ञानाराधन का कार्य करते हैं अतः आहारदान के द्वारा ज्ञानदान भी हो जाता है। चारों प्रकार के दान में रागद्वेष भाव का त्याग होता है। अपने-अपने अवसर पर चारों ही दानों के द्वारा स्वपर का कल्याण होता है। चारों ही दान उत्तम हैं। -प्. सं. 20-12-56/VI/ मो. ला. उरसेया दान का द्रव्य खाने वाला दुर्गति का पात्र है शंका-दान लेने वाले को किस गति का बंध होता है ? किस पाप से वह अधीन बनता है जो दातारों का मंदिर के लिए दिया हुआ रुपया या कोई भी चीज लेता या खाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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