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________________ ६३६ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । मांसादि पदार्थों का भक्षण करनेवाले मनुष्य के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । म ब मांस का सेवन तो सम्यग्दर्शन का विरोधी है। 'मननदृष्टिचरित्रतपोगुणं वहति वह्निरिवेंधनमूजितं ।' सुभाषित-रत्न-संदोह अर्थ-जिस प्रकार अग्नि ईंधन के ढेर के ढेर जला डालती है उसी प्रकार मन सम्यग्दर्शन-शानचारित्र गुणों को बात की बात में भस्म कर डालती है। धर्मद्र मस्यास्तमलस्य मूलं निर्मूलमुन्मूलितमंगभाजां। शिवादिकल्याण फलप्रदस्व मांसाशिनास्यान कथं नरेग ॥५४७॥ सुभाषित रत्नसंदोह अर्थ-जो मांस भोजी हैं वे पुरुष मोक्ष-स्वर्ग के सुखों के करनेवाले निर्दोष धर्मरूपी वृक्ष की जड़ उखाड़ने वाले हैं। खदिरसार-भील ने जब धर्म का स्वरूप पूछा तो मुनि महाराज ने निम्न प्रकार उत्तर दिया था निवृत्तिर्मधुमासादि सेवायाः पापहेतुतः । स धर्मस्तस्य लाभो यो धर्म-लाभः स उच्यते ॥ उत्तरपुराण सर्ग ७४ श्लोक ३९२.३९३ मधु, मांस आदि का सेवन करना पाप का कारण है, अतः उससे विरक्त होना धर्म है । उस धर्म की प्राप्ति होना धर्मलाभ है। जो मनुष्य आत्मकल्याण चाहता है उसको सर्व प्रथम मद्य, मांस आदि का त्याग करना चाहिये। -ज. म. 22-10-70/VIII/ पदमचन्द्र अष्टमूलगुण धारण प्रादि सर्व गतियों के सम्यक्त्वियों में सम्भव नहीं है शंका-क्या समस्त गतियों वाले जीव चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त कर अष्टमूलगुण धारण तथा सप्तव्यसन त्याग का पालन करते हैं ? समाधान-यद्यपि चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव चारों गतियों में होते हैं तथापि अष्टमूलगुण धारण तथा सप्तव्यसन-त्याग चारों गतियों में सम्भव नहीं है। -पताचार 5-12-75/च. ला. जैन, भीण्डर १. भोजन का प्रात्म-परिणामों पर प्रभाव पड़ता है २. मांस भक्षी को सम्यक्त्व तो क्या, देशनालब्धि भी असम्भव है शंका-क्या मांस भक्षण करने वाले मनुष्य के सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता? यदि यह माना जावे कि मांसभक्षण का त्याग करने पर सम्यग्दर्शन होगा तो मांसत्याग के लिये चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम चाहिये और इसप्रकार चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयोपशम को भी सम्यग्दर्शन के लिये कारण मानना होगा, किंतु सम्यग्दर्शन होने में दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय कारण है। सम्यग्दर्शन का बाधक मिथ्यात्वकर्म है, चारित्रमोहनीय कर्म बाधक-कारण नहीं अतः सम्यग्दर्शन के लिये मनुष्य को मांसत्याग को क्या आवश्यकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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