SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 678
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : प्रवचनसार गाथा ११ की तात्पर्यवृत्ति टीका में श्री जयसेन आचार्य ने वीतरागचारित्र को शुद्धोपयोग कहा है 'शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं' और सरागचारित्र को शुभोपयोग कहा है 'शुभोपयोगरूपं सरागचारित्र' । प्रवचनसार गाथा ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका में तथा वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ३४ की संस्कृत टीका में सम्यग्दृष्टि के चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान में एक शुभोपयोग ही कहा है। इससे सिद्ध है कि व्यक्तरागसहित सम्यग्दष्टि को शुभो - पयोगी कहा है अर्थात् शुभोपयोग में दो अंश होते हैं, एक राग अंश दूसरा सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र अश । जितने अंश में सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र है उतने अंश में बंध नहीं है अर्थात् संवर व निर्जरा है, किन्तु जितने अंशों में राग है उतने अंशों में बंध है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा २१२-२१४ । ६३४ ] शुभपयोग में रागांश के द्वारा पुण्यबंध होता है, किंतु वह बंध अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, बंध का उपाय नहीं है ( पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा २११ व भावसंग्रह गाथा ४०४ ) । इस बंध के द्वारा तीर्थंकर व उत्कृष्ट संहननादि विशिष्टपुण्यप्रकृति बंधती हैं जो मोक्ष के लिये सहकारी कारण होती हैं (पंचास्तिकाय गाथा ८५ तात्पर्य - वृत्ति टीका ) क्योंकि संहननादिशक्ति के अभाव में जीव के शुद्धात्मस्वरूप में ठहरना अशक्य होता है । - पंचास्तिकाय गाथा १७१ व १७० पर तात्पर्यवृत्ति टीका सम्यग्दर्शन की मुख्यता करके शुभोपयोग को निर्जरा का कारण कहा है। जैसा कि श्री कुंदकुंद आचार्य ने समयसार गाथा १९३ निर्जराअधिकार के प्रारम्भ में कहा कि सम्यग्दृष्टिजीव जो इन्द्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है यह सब निर्जरा के निमित्त है। तथा श्री वीरसेन स्वामी ने भी जयधवला पुस्तक १ पृष्ठ ६ पर कहा है कि यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्म का क्षय न माना जावे तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता । श्री प्रवचनसार गाथा २६० में भी कहा- जो ( श्रमरण, मुनि ) अशुभोपयोग रहित वर्तते हुए शुद्धोपयुक्त अथवा शुभोपयुक्त होते हैं वे ( श्रमण ) लोगों को तार देते हैं। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने प्रवचनसार गाथा २५४ को टीका में लिखा है - गृहस्थ को रागसंयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और इसलिये वह शुभोपयोग क्रमशः परम निर्वाणसौख्य का कारण होता है । गाथा २२२ की टीका में तो मुनिपर्याय के सहकारी कारणभूत आहार-निहार को भी शुद्धोपयोग कहा है । इसी प्रकार अन्यत्र भी सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्चारित्रभ्रंश की मुख्यता से शुभोपयोग को संवर, निर्जरा तथा मोक्ष का कारण कहा है, किन्तु वहाँ पर उस कथन में रागअंश और रागभ्रंश से होने वाला बंध गौण समझना चाहिये, बंध का सर्वथा अभाव नहीं समझना चाहिये । सूक्ष्मराग दसवें गुणस्थान तक रहता और तत्संबंधी बंध भी होता है । इसी कारण करणानुयोग में शुद्धोपयोग ग्यारहवें गुणस्थान से कहा गया है, किन्तु द्रव्यानुयोग में सातवें गुणस्थान में ही बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाने से यहीं से शुद्धोपयोग कह दिया गया है । सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग होते हुए भी समयसार ग्रंथ में सम्यग्दृष्टि को अबंधक कहा है । यह कथन भी सम्यग्वष्टि की ज्ञान-वैराग्यशक्ति की अपेक्षा से है, किन्तु सम्यग्दृष्टि को सर्वथा अबंधक न समझ लेना, जितने अंशों में कषाय का उदय है उतने अशों में बंध है । रागश की मुख्यताकरि अथवा मिध्यादृष्टि के शुभराग को उपचार से शुभोपयोग की दृष्टि से कहीं कहीं मात्र पुण्यबंध का ही कारण कहा है और पुण्यबंध इंद्रियसुख का साधन है । इंद्रियसुख वास्तविक सुख न होने से दुखमयी है । अतः शुभोपयोग को इसप्रकार दुख का साधनभूत सिद्ध करके हेय बताया है । यह कथन प्रवचनसार गाथा ६९ से ७९ तक तथा गाथा १५७ में स्वयं श्री कुंदकुंद आचार्य ने किया है । श्री अमृतचन्द्रसूरिजी ने भी गाथा ६ व ११ की टीका में किया है । व्यवहाराभासियों का कथन करते हुए भी टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक में शुभोपयोग को बंध का ही कारण कहा है और यह भी कहा जो बंध का कारण है वह संवर व निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है ? मोक्षशास्त्र अध्याय ६ में सम्यक्त्व व सरागसंयम को देवायु के आस्रव का कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy