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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ - पुण्य से सबको विजय करने वाली लक्ष्मी मिलती है, इन्द्र की दिव्यलक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है, पुण्य से ही तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है और परमकल्याणरूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है, इसप्रकार यह जीव पृष्य से ही चारों प्रकार की लक्ष्मी का पात्र होता है, इसलिये जिनेन्द्र भगवान् के आगमानुसार पुण्य का उपार्जन करो । ६३० ] श्री वीरनन्दि सैद्धान्तिकचक्रवर्ती प्राचार्य ने आचारसार के इस श्लोक में बतलाया है कि जिन जीवों के पुण्यकर्म का उदय महान् होता है उनको रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये महान् पुण्योदय की सहकारता भी जरूरी है । "पुण्यप्रकृतयस्तीर्थपदादिसुखखान्यः ।" पुण्य प्रकृतियाँ तीर्थंकर आदि पदों के सुख देने वाली हैं । "काणि पुण्ण फलाणि ? तिरथयर गणहर बिसि चक्कवट्टि बलदेव वासुदेव सुर- विज्जाहरिद्धीओ ।" - धवल पु. १ पृ. १०५ पुण्य का फल तीर्थंकर गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ फल हैं। पुण्य काक्षे विकलाक्ष पंच करणासंज्ञव्रजेजतु मा 1 लब्धा बोधिरगण्य पुण्यवशतः संपूर्ण पर्याप्तिभिः ॥ मध्यं: संज्ञिभिराप्त लब्धिविधिभिः कैश्चित्कदाचित् क्वचित् । प्राप्या सा रमतां मदीयहृदये स्वर्गापवर्गप्रदा ॥ १० ॥ ४३ ॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी प्रवचनसार गाथा ४५ में 'पुष्णफला अरहंता' इन शब्दों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है - ' अरहन्तपद पुण्यप्रकृति का फल है ।" यह सातिशयपुण्यबंध सम्यग्दृष्टि के ही होता है और सम्यग्दष्टि मोक्ष के कारणभूत पुण्य को उपादेय मानता है। कहा भी है "निनिदान विशिष्टतीर्थंकर नामकर्मास्त्रव उपादेयो मोक्षहेतुत्वात् । तीर्थंकर नामकर्ममोक्षहेतुश्चतुविधोऽपि बंध उपादेयः ।" भावपाहुड गाथा ११३ टीका मोक्ष का कारण होने से निदानरहित तीर्थंकरनामक सातिशयपुण्यप्रकृति का श्राखव उपादेय है । मोक्ष का कारण होने से तीर्थंकर नामकर्म का चारों प्रकार का बंध उपादेय है । सम्यग्दर्शन का विशिष्ट फल यह है कि जीव के अपरीत संसारीपना हटकर परीतसंसारी हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन अनन्तसंसार को काटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर देता है। कहा भी है " एगो अनादियमिच्छादिट्ठी अपरितसंसारो अद्यापवत्तकरणं अपुष्वकरणं अणियट्टिकरणमिदि एवाणि तिष्णि करणानि का सम्मत्तं गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुरोण पुम्बिल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्टिव्रण परित्तो पोग्गल• परियट्टस अद्धमेतो होवूण उक्कसेण चिट्ठवि । धवल ४ / ३३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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