SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 670
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पतानंत पर्यायतयैकं किचिन्मिलित स्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं ज्ञायक एवैकः शुद्धः ।" समयसार गाथा ७ की टीका । ६२६ ] धर्म और धर्मीका यद्यपि स्वभाव से अभेद है तो भी नाम से भेद होने के कारण व्यवहार मात्रकर आत्मा के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । परमार्थ से देखा जाय तो द्रव्य अनन्तगुणों का पिंड होने पर भी एक है, उस एक भेद-स्वभाव की दृष्टि में दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं हैं और चारित्र भी नहीं है । इस दृष्टि से सिद्धद्रव्य के ग्रहण होनेपर उसमें पृथकरूप से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का ग्रहण नहीं होता है । इसप्रकार स्याद्वादियों के लिये सिद्धों में चारित्रगुण का सद्भाव व असद्भाव इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है, किन्तु सर्वथा एकान्तवादियों के उक्त दोनों कथन मिथ्या हैं क्योंकि उनका कथन नय निरपेक्ष है । यथाख्यात चारित्र क्षायिकरूप ही हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि ग्यारहवें उपशांत मोहगुणस्थान में यथाख्यात चारित्र उपशमरूप भी पाया जाता है । दूसरे यथाख्यात चारित्र साधनरूप है इसलिये सिद्धों में यथाख्यातचारित्र नहीं है | चारित्र की साघनरूप पर्याय नष्ट होने पर ही साध्यरूप पर्याय का उत्पाद होता है । अरहंतों का आत्मद्रश्य सलेप है और सिद्धों का आत्मद्रव्य निर्लेप है । श्री अमृतचन्द्राचार्य के 'द्रव्यानुसारि चरणं' इस पद के द्वारा यह कहा गया कि चारित्र द्रव्यानुसार होता है । अतः द्रव्य में अन्तर होने से चारित्र में भी अन्तर होना सम्भव है । - ज. ग. 20-5-71 / VII / र. ला. जैन, एम. कॉम. मेरठ क्षायिकचारित्र व यथाख्यातचारित्र में अन्तर शंका- क्षायिकचारित्र और ययाख्यातचारित्र में क्या अन्तर है ? समाधान - क्षायिक चारित्र तो चारित्रमोहनीय कर्म के अत्यन्त क्षयसे उत्पन्न होता है, किन्तु उपशांतमोहगुणस्थान में चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम से भी यथाख्यातचारित्र होता है । ग्यारहवेंगुणस्थान में यथाख्यातचारित्र तो होता है, किन्तु क्षायिकचारित्र नहीं हो सकता है । यथाख्यातचारित्र उपशम व क्षायिक दोरूप हैं, किन्तु क्षायिक चारित्र मात्र क्षायिक रूप ही है । " षोडशकषायनवनोकषायक्षयात् क्षायिकचारित्रम् । सर्वस्य मोहनीयस्योपशमः क्षयो वा वर्तते यस्मिन् तत् परमोदासीन्यलक्षणं जीवस्वभावदशा यथाख्यात चारित्रम् ।" तत्त्वार्थवृत्ति अप्रत्याख्यानावरणादि सोलहकषाय और हास्यादि नव नोकषाय के क्षय से क्षायिकचारित्र होता है । जिसमें सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का उपशम या क्षय हो वह यथाख्यातचारित्र है । यथाख्यातचारित्र का स्वामी उपशमसम्यग्दष्टि भी हो सकता है, किन्तु क्षायिकचारित्र का स्वामी क्षायिकसम्यग्दष्टि ही होगा । इसप्रकार क्षायिकचारित्र व यथाख्यातचारित्र में प्रस्तर है । वीतरागता की अपेक्षा इन दोनों चारित्र में कोई अन्तर नहीं है । क्षीणमोह - बारहवें गुणस्थान में जो क्षायिकचारित्र है वही यथाख्यातचारित्र है । - जै. ग. 3-12-70/X/ रो. ला. मित्तल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy