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________________ ६२२ ] जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं णिरुभरा डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्जदि पहाणझरमंत जोएण ॥ तह बादरतणु विसयं जोगविसं ज्झाणमंतबलजुत्तो । अणुभावम्मि णिरु' भदि अवदि तदो वि जिणवेज्जो ॥ सुमम्मि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कं । ज्झायदि णिरुभिदु जो सुहुमं तं कायजोगं वि ॥ अर्थ - जिसप्रकार मंत्र के द्वारा सब शरीर में भिदे हुए विष का डंक के स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करनेवाले मंत्र के बल से उसे पुनः निकालते हैं । उसीप्रकार ध्यानरूपी मंत्र के बल से युक्त हुआ यह सयोगकेवली जिनरूपी वैद्य बादरशरीर विषयक ( कर्मों के आस्रवका कारणभूत ) योगविष को पहले रोकता है और उसके पश्चात् उसे निकाल फेंकता है । जो केवलीजिन सूक्ष्मकाययोग में विद्यमान होते हैं वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति तीसरे शुवलध्यान का ध्यान करते हैं । उस सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध करने के लिये उस ध्यान को करते हैं । ( धवल पु० १३ ) [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "जोगम्हि निरुद्धम्हि आउमाणि कम्माणि होति अंतो मुहुत्त से काले सेलेसियं परिवज्जदि समुच्छिष्णकिरिमणियट्टि सुक्कझाणं ज्झायदि । कथमेत्थ ज्झाणववएसो ? एयागेण चिताए जीवस्स णिरोहो परिष्कंदाभावोझाणं णाम । किं फलमेदं जाणं । अघाइ चक्क विणासफलं । तदियसुक्कज्झाणं जोगणिरोहफलं ।" अर्थ - योग का निरोध होने पर शेष कर्मों की स्थिति आयुकर्म के समान अन्तर्मुहूर्त होती है । तदनन्तर समय में शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है और समुच्छिन्न क्रियानिवृत्तिशुक्लध्यान को ध्याता है। एकाग्ररूप से जीव के चिन्ता का निरोध अर्थात् परिस्पन्द का अभाव होना ही ध्यान है, इस दृष्टि से ध्यान संज्ञा दी गई है । श्रघातिचतुष्क कर्मों का विनाश करना इस चतुर्थशुक्लध्यान का फल है । योगनिरोध करना तीसरे शुक्लध्यान का फल है । समुच्छिन्न क्रियास्थातो ध्यानस्याविनिवर्तिनः । साक्षात् संसारविच्छेद समर्थस्य प्रसूतितः ॥ १/१ / ८३ ॥ अर्थात् संसार को ध्वंस करनेवाली साक्षात् सामर्थ्यं क्षायिकचारित्रगुण में चतुथंशुवलध्यान से आती है । इसलिये निश्चयनय से चौदहवें गुरणस्थान के रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र ) को मोक्ष का मुख्य ( साक्षात् ) कारण कहा गया है । "निश्चयनयाभयले तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयवर्ति-रत्नत्रयमिति निरवद्यमेतत्तत्त्वविदामाभासते । " इसका भाव ऊपर कहा जा चुका है। इससे जाना जाता है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समयतक चारित्र साधनरूप है साध्यरूप नहीं है । Jain Education International "सामायिक च्छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्यराययथाख्यातमिति चारित्रम् ॥ त. सू. ९/१८ || इस सूत्र की टीका में श्री पूज्यपाद आचार्य कहते हैं "चारित्रमन्ते गृह्यते मोक्षप्राप्तेः साक्षात् कारणमिति ज्ञापनार्थम् ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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