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________________ चरणानुयोग चारित्र सामान्य स्वभाव चारित्र है शंका-स्वभाव चारित्र है या नहीं? समाधान-चारित्र प्रात्मा का स्वभाव है अतः स्वभाव चारित्र है। कहा है-स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमय प्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेवस्वभावत्वाद्धर्मः। (प्र. सा. गाथा ७ तत्त्वदीपिका टीका ) स्वरूप में चरण करना ( रमना ) सो चारित्र है। स्वसमय (अपने स्वभाव ) में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है। अब स्वसमय को बतलाते हैं-आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मृणेदव्वा (प्रवचनसार गाथा ९४ ) जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं वे स्वसमय जानने। इस प्रकार स्वसमय अर्थात् आत्मस्वभाव में स्थितिरूप प्रवृत्ति वह चारित्र है अतः स्वभाव चारित्र है । -जं. सं. 20-12-56/VI/ . ला. द्रोणगिरि व्रत धर्म है वह सिद्धों में भी है शंका-क्या व्रत धर्म है ? यदि धर्म है तो सिद्धों में भी होने चाहिये ? समाधान----आगमप्रमाण द्वारा यह भलीभांति सिद्ध है कि-रागादिभावों की उत्पत्ति हिंसा है। रागादिभावों से विरत अर्थात् निवृत्त होना अहिंसा व्रत है अथवा निश्चय करके रागादि भावों का प्रगट न होना अहिंसा है। ( पुरुषार्थ सिद्धय पाय )। प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत ये तीनों एक अर्थ वाले नाम हैं ( पच्चक्खाणं संजमो महन्वयाई ति एपढ़ो। षट्खंडागम पुस्तक ६ पृ० ४४ ) व्रत अर्थात् संयम रागादि व कषाय के उदय के अभाव में होता है अतः यह संयम जीवों को संसार दुःख तें निकाल कर उत्तमसुख ( मोक्षसुख ) में घरता है इसलिये धर्म है 'संसारदुःखतः सत्वान्योधरत्युत्तमे सुखे।' ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) 'इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः।' ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र २)। उत्तम क्षमा आदि दस धर्म में उत्तम संयम को भी धर्म कहा है ( मोक्षशास्त्र अध्याय ९ सूत्र ६) इसप्रकार आगम प्रमाण द्वारा यह सिद्ध हो गया कि 'व्रत' अर्थात् 'संयम' में धर्म का लक्षण ( जो उत्तम सुख में धरे ) पाये जाने से तथा १० धर्मों में भी नामोल्लेख होने से 'व्रत' धर्म है। दूसरी बात यह है कि 'व्रत' वीतरागता का माप है। सिद्धों में पूर्ण वीतरागता है। अतः वहां पर रागादि' का अभावरूप व्रत भी है। इसका खुलासा इस प्रकार है। व्रत, संयम, चारित्र पर्यायवाची नाम हैं। सकलकषाय से रहित चारित्र है। कहा भी है 'सकलकषायविमुक्त चारित्वं ।' (पुरुषार्थ सिद्धच पाय श्लोक ३९ ) नव केवललब्धि अर्थात नौ क्षायिकभावों में क्षायिकचारित्र भी है जो चारित्रमोहनीयकर्म के क्षय से प्रगट होता है। जिसप्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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