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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २१ मेरे धर्म गुरु पण्डित रूपचन्दजी गार्गीय ने मुझे लिखा तो मेरे हृदय ने यह बात स्वीकार नहीं की। "पिता बच्चे के हित के लिये उसे कुछ भी कह सकता है परन्तु पिता के समक्ष होना पुत्र का काम नहीं है" यह बात सोच कर मैंने पण्डितजी को यह कह कर समाधान कर दिया कि गहनतम सिद्धान्तों में विद्वानों का मतभेद होना असम्भव नहीं है । ऐसा सदा ही होता रहा है और होता रहेगा। मुझे विश्वास है कि इस सैद्धान्तिक मतभेद के कारण बाबूजी का प्रेम मेरे प्रति कम नहीं ।। मेरी दृष्टि में पक्षपोषण की अपेक्षा प्रेम का मूल्य कहीं अधिक है। जिस दृष्टि से बाबूजी कह रहे थे, वह मुझे सम्मत है क्योंकि भले ही निश्चय दृष्टि से वह सिद्धान्त सत्य रहे परन्तु व्यवहार भूमि पर तो बाधित होता ही है। ___ कहाँ तक कहूँ, स्वर्गीय बाबूजी की गुणगरिमा का वर्णन तो बहुत कुछ हो सकता है परन्तु विस्तारभय से यहीं विराम करता हुआ प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि बाबूजी की आगमानुसारी समता पूर्ण लेखनी समाज में फैली सैद्धान्तिक भ्रान्तियों का (उनकी प्रकाशित रचनाओं के माध्यम से) वारण करती रहे, जिससे भतभेद दूर होकर एकता का वातावरण उत्पन्न हो। बाबूजी की ज्ञान साधना पर्यायान्तर में भी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हो, यही मङ्गल कामना है। मंगल कामना * ब्रह्मचारी लाड़मलजी, दशम प्रतिमाधारी सहारनपुर निवासी ब्रह्मचारी पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार सा० महान् 'सिद्धान्तदीपक' थे। जब से परम पूज्य आचार्य शिवसागरजी महाराज के संघ में आप सिद्धान्त ग्रन्थों के स्वाध्याय हेतु पधारने लगे थे तब से मेरा आपसे परिचय हुआ। आपमें सबसे बड़ा गुण यह देखा कि आप हठग्राही अंशतः भी नहीं थे। आपमें विशिष्ट क्षयोपशम के साथ-साथ प्राग्रह का अभाव एवं संयम इन दोनों गुणों का सम्यक समन्वय था। आपकी प्रेरणा से ही मुझे वृहद् द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार आदि ग्रन्थों के प्रकाशन का अवसर मिला अत: मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ। मेरी यही मंगल कामना है कि पण्डित श्री रतनचन्दजी मुख्तार पुनः नरभव की आवाप्ति कर स्वयं मंगलरूप बन जायें। जिनवाणी की चिरस्मरणीय सेवा * ब्र० धर्मचन्द्र जैन शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ___ समाज के महान् सौभाग्य से विद्वद्वर्य स्वनामधन्य (स्व०) पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार सा० ज्ञान के प्रकाशपुञ्ज के रूप में प्रकट हुए थे। आपने जैन समाज को अपने सैद्धान्तिक ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशमान करते का बीड़ा उठाया तथा अन्त तक उसका निर्वाह करने का पुरुषार्थ करते रहे। जिनवाणी माता की जो सेवा आप द्वारा हई है वह स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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