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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] लोक-रचना चित्रादि १६ पृथ्वियों का अवस्थान कहाँ है ? शंका-चित्रादि १६ पृवियाँ कहाँ हैं ? क्या ये मध्यलोक और प्रथम नरक के बीच में हैं ? समाधान-रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं। उसमें जो ऊपर का खर भाग है उसमें ये चित्रादि १६ प्रध्वियां हैं और सबसे नीचे के अब्बहल भाग में प्रथम नरक है। खरपंकप्पब्बहुला भागा रयणप्पहाए पुढवीए । बहलत्तणं सहसा सोलस चउसीदि सीदी य ॥९॥ परभागो णावग्वो सोलसभेदेहिं संजुदो णियमा । चित्तादीओ खिबिओ तेसि चित्ता बहुवियप्पा ॥१०॥ अधोलोक में सबसे पहली रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके तीन भाग हैं-खरभाग, पङ्कभाग और अब्बहुल भागों का बाहल्य क्रमशः १६०००, ८४०००, ८०००० योजन प्रमाण है॥९॥ इनमें से खर भाग १६ भेदों सहित हैं । ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथ्वी रूप हैं ॥ १० ॥ ति.प.दू. अधि. तत्र रत्नप्रभायां अब्बहुलमागे उपर्यधश्चककयो जन सहस्र वर्जयित्वा मध्ये नरकाणि भवन्ति । -रा. वा. ३।२।२ पृ० १६२ रत्नप्रभा पृथ्वी के अन्बहुल भाग के ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्यभाग में नरकबिल हैं। चित्रापृथ्वी के ऊपर मध्यलोक है। -पताधार/च. ला. जैन भीण्डर जम्बूद्वीप प्रादि असंख्यात द्वीप समुद्रों के नीचे खर पृथ्वी में देव नहीं रहते शंका-सर्वार्थ सिद्धि अ० ४ सूत्र ११ की स० सि० में लिखा है कि "इस जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीपसमुद्र लांघकर ऊपर के खर-पृथ्वि भाग में सात प्रकार के व्यन्तरों के आवास हैं।" यहाँ असंख्यात द्वीपसमुत्रों के लांघने से क्या अभिप्राय है ? समाधान -जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीपसमुद्रों के नीचे खर पृथ्वी में देवों के [ व्यन्तर देवों के ] निवास स्थान नहीं हैं, किन्तु उन असंख्यात द्वीपसमुद्रों के पश्चात् जो असंख्यात द्वीपसमुद्र शेष रहते हैं उनके नीचे स्थित खर पृथ्वी में व्यन्तर देवों के निवास हैं। यह अभिप्राय है। असंख्यात के असंख्यात भेद होने से असंख्यात में से असंख्यात घटाने पर शेष भी असंख्यात रह जाता है। INFINITE-INFINITE INFINITE. इसको गणितज्ञ जानते हैं । -पवाधार अगस्त 77 ज. ला. जन, भीण्डर भोग भूमि में भोजन सामग्री प्रचित्त है शंका-कल्पवृक्षों से जो भोजन सामग्री मिलती है क्या वह अचेतन होती है ? यदि ऐसा है तो क्या वह बनस्पति की श्रेणी में नहीं गिनी जा सकती? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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