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________________ ५८८ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : नित्यनिगोदिया जीव मनुष्यपर्याय प्राप्त कर उसी भव से मोक्ष जा सकते हैं शंका-क्या नित्य निगोद से निकलकर सीधा मनुष्य होकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेता है या नहीं? मनुष्य आयु बांधने के योग्य परिणाम किस कर्म के उदय से हए? वह परिणाम उस जीव के ही क्यों हए उसके साथी अनन्त जीवों के क्यों नहीं हुए ? समाधान-नित्य निगोद से निकलकर सीधा मनुष्य होकर उसी भव से मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है । कहा भी है "अनादि काल से मिथ्यात्व के तीव्र उदय से अनादिकाल पर्यन्त जिन्होंने नित्यनिगोद पर्याय का अनुभव लिया था ऐसे ९२३ जीव निगोद पर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्ती के भद्रविवर्धनकुमार आदि पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनको श्री आदिनाथ भगवान के समवसरण में द्वादशांग वाणी का सार सुनने से वैराग्य हो गया। ये राजपुत्र इस ही भव में त्रस पर्याय को प्राप्त हुए थे। इन्होंने जिनदीक्षा लेकर रत्नत्रयाराधना से अल्पकाल में ही मोक्ष लाभ किया । ( मूलाराधना गाथा १७ टोका) मन्दकषायोदय के कारण विशुद्ध परिणामों से निगोदिया जीव के मनुष्यायु का बंध होता है। अन्य निगोदिया जीवों के कषाय का मन्द उदय न होने से विशुद्ध परिणाम नहीं होते अत: उनके मनुष्यायु का बंध नहीं होता। ऐसा नियम नहीं है कि सभी निगोदिया जीवों के एक ही साथ कषाय का मंद उदय हो। इसलिये सभी जीवों के विशुद्ध परिणाम नहीं हुए। -जे. ग. 26-6-67/1X/र. ला. जैन, मेरठ देवों में तिथंचों का उत्पाद कहाँ तक शंका-धवल पुस्तक नं० ९ पृष्ठ ३०७ पर-"संजमासंजमेण विणा तिरिक्खअसंजद सम्माविद्रोणमाणवादिसु उप्पत्ति वेसणादो।' यहां प्रश्न है कि-अवतसम्यग्दृष्टि जब कि बारहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जाता, तब संयमासंयम के बिना तिर्यच असंयत सम्यग्दृष्टि आनतादि स्वर्गों में कैसे उत्पन्न होंगे? चौबीस वंडक में भी है"अव्रत सम्यक्त्वी नरमाय, बारम ते ऊपर नहीं जाय।" और भी कहा है-"सहस्रार ऊपर तियंच, जाय नहीं ये तजि पर पंच" यह भी नियम है। समाधान-कुछ विद्वानों ने भ्रमवश ऐसा नियम भाषा ग्रन्थों में लिख दिया कि प्रव्रत सम्यग्दृष्टि मनुष्य अथवा कोई भी तियंच बारहवें स्वर्ग से ऊपर उत्पन्न नहीं हो सकता । जिनको गुरु परम्परा से उपदेश प्राप्त हआ ऐसे दिगम्बर जैन आचार्यों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी शास्त्र-रचना का अधिकार नहीं है। आजकल मानकषाय अथवा लोभकषाय वश बहुत से जीव दिगम्बर जैन शास्त्र अथवा पुस्तक रचने की अनधिकार चेष्टा करते हैं। उनमें प्राया जैन सिद्धान्त के विरुद्ध कथन रहता है और एकांत का पोषण होता है। ऐसी पुस्तकों के स्वाध्याय द्वारा साधारण जनों की विपरीत श्रद्धा हो जाती है। किसी का कुछ भी बिगाड़ हो, उनको तो अपनी पूजा, मान-बड़ाई अथवा रुपये से काम। षट्खण्डागम (जिसमें प्रायः द्वादशांग के सूत्र संकलित हैं) के जीवस्थान के स्पर्शानुगम के सूत्र २७ व २८ में स्पष्ट कहा है कि "असंयत सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तियंचों ने अतीत व अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह वसनाड़ी स्पर्श की हैं।" यदि तिर्यंचों का उत्पाद सोलहवें स्वर्ग तक न माना जावे तो उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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