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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [१ तपोनिधि मुनिश्री वृषभसागरजी महाराज की समाधि के समय हस्तिनापुर में परम पूज्य धर्मदिवाकर १०८ आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज ससंघ विराजमान थे। मैं भी वहां पहुंचा था । उस समय ब्र० रतनचन्दजी सा० मुख्तार भी वहां उपस्थित थे और साधुसेवा में तत्पर थे । पूज्य वृषभसागरजी महाराज की गया था परन्तु अपने पैर में फ्रेक्चर होने के कि मैं नवमी या दसवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण करना चाहता हूँ । समाधि के चार दिन पूर्व मुझे मुनिदीक्षा के लिए सम्बोधित किया कारण मैंने असमर्थता प्रकट की और महाराज श्री से निवेदन किया इस सम्बन्ध में मैंने श्री मुख्तार सा० से भी परामर्श किया। आपने मेरी शारीरिक स्थिति देखकर कहा कि आपको अभी नवमी प्रतिमा से आगे नहीं बढ़ना चाहिए। तदनन्तर मैंने समाधिस्थ महाराज के समक्ष पूज्य आचार्य श्री से नवमी प्रतिमा के व्रत लेने के लिए श्रीफल भेंट किया और वि० सं० २०३० चैत्र शुक्ला चतुर्थी को मुजफ्फरनगर में आचार्यश्री से नवमी प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये । पण्डितजी के पास बहुत से भाई शंकाएँ लेकर आते थे। आप उन्हें सरलता पूर्वक समझा कर उनकी शंका का समाधान करते थे और यह भी बता देते थे कि "अमुक-अमुक ग्रन्थों में अमुक-अमुक पेज पर देखो ।" इससे शंकाकार को बहुत सन्तोष होता था । ऐसे स्वपर कल्याणकारी महान् विद्वान् इस कलिकाल में विरले ही पैदा होते हैं । निश्चय ही सिद्धान्तवारिधि ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार एक विभूति थे । मैं वीरप्रभु से यही प्रार्थना करता हूँ कि मुख्तार सा० शीघ्र चिर शान्ति को प्राप्त करें । समतायुक्त विद्वत्ता * जिनेन्द्र वर्णी विद्वद्वर श्रीमान् ब्रह्मचारी रतनचन्दजी मुख्तार के शंका समाधान विषयक लेख जैन पत्रों में पढ़ा करता था परन्तु उनके साक्षात्कार का अवसर मुझे उस समय प्राप्त हुआ जब स्वयं मेरे हृदय में सिद्धान्त विषयक कुछ शंकाएँ उत्पन्न हुईं और मैंने अपने आपको समाधान प्राप्त करने में असमर्थ पाया । बाबूजी का नाम पत्रों में तो पढ़ने को मिलता ही था इसलिए उनकी ओर ही दृष्टि उठना स्वाभाविक था। दूसरा, यह भी विश्वास था कि मेरे पिताजी से परिचित होने के कारण वे मुझे अपने बच्चे के समान समझेंगे । इसी आधार पर साहस करके मैंने भेज दीं और साथ ही यह प्रार्थना भी की कि इनका उल्लेख पत्रों बाबूजी ने अत्यन्त प्रेम पूर्वक ग्रामन्त्रण प्रदान किया। उनका कारण आनन्द विभोर हो उठा । अगले ही दिन मैं सहारनपुर के पहुँचा जहाँ बाबू नेमिचन्दजी ने अपने बच्चे की भाँति मेरा हार्दिक । अपनी बालोचित शंकाएँ एक पत्र द्वारा उनके पास में न किया जाए। जैसा सोचा था वैसा ही हुआ पत्र पढ़ते ही मेरा हृदय प्राशा तथा उत्साह के लिए रवाना हो गया। पूछता-ताछता घर तक स्वागत किया । पीछे बाबूजी ने मुझे अपने हृदय से लगाया । १. मैंने ब्रह्मचारीजी को सदा अपने धर्म पिता के स्थान पर समझा है अतः ब्र० के 'बाबूजी' शब्द किसीप्रकार भी असंगत नहीं है । बाबूजी स्वयं भी इससे सहमत थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only स्थान पर मेरे द्वारा प्रयुक्त ऐसा मेरा विश्वास है । www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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