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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १७ ग्रन्थगत एवं टीकागत अशुद्धियों को पकड़ने की आपकी क्षमता अद्भुत् थी। चित्त की एकाग्रता, इन्द्रियविजयता और पूर्व भवागत संस्कार ही इस क्षमता के कारण थे। आपकी अवग्रहावरण और धारणावरण कर्मप्रकृतियों के विशेष क्षयोपशम तथा स्वच्छ मति-श्रुत (आगम ) ज्ञान के विषय में जितना लिखा जाए, उतना कम है। आप अपनी आयुपर्यन्त सरस्वती के कोष के बहुमूल्य रत्नों ( प्रमेयों ) का मुक्तहस्त से वितरण करते रहे थे। मिति मंगसिर कृ० सप्तमी वी० नि० सं० २५०७ के दिन आप समाधिमरणपूर्वक दिवंगत हुए। हमारी यही भावना है कि आप यथाशीघ्र शाश्वत सुख सम्प्राप्त करें। स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते * पूज्य १०५ प्रायिकाश्री प्रादिमती माताजी विद्वज्जगत् में स्व० पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार का एक विशेष स्थान रहा है । आप पहले वकालात करते थे परन्तु इससे घृणा होने पर आपने इसको छोड़ दिया। एक बार मैंने आपसे पूछा था कि पण्डितजी ! आपने वकालात क्यों छोड़ी? आपने उत्तर दिया-"यह काम अच्छा नहीं है, इसमें असत्य बहुत बोलना पड़ता है अतएव मैंने इस कार्य का त्याग कर दिया।" आपने हस्तिनापुर में एकाकी रह कर तीन वर्ष तक धवल-जयधवल-महाधवल ग्रन्थों का अध्ययन स्वयमेव किया। करणानुयोग का सूक्ष्म विवेचन जितना और जैसा आप कर सकते थे वैसा करने वाला अब कोई नहीं। आप प्रतिवर्ष आचार्यकल्प श्री श्र तसागरजी महाराज के संघ में आकर धवलादि ग्रन्थों के स्वाध्याय में बहत ही रुचि से अधिक से अधिक समय देते थे । आपकी भावना यही रहती थी कि मेरा एक समय भी व्यर्थ व्यतीत न हो। वृद्धावस्था में भी आपकी विशिष्ट कर्मठता देखकर सबको आश्चर्यमिश्रित हर्ष होता था कि प्रमाद आपको छना भी नहीं। जिनवाणी की सेवा व उद्धार के लिए आप प्रतिदिन घण्टों श्रम करते थे। आयु के अन्त तक आप गोम्मटसार जीवकाण्ड की हिन्दी टीका लिखने में संलग्न रहे। आपके व्यक्तित्व की यह प्रशंसा अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है । यह तो आपके जीवन में पूर्णरूपेण दृष्टिगोचर होती थी। ७९ वें वर्ष में, २८ नवम्बर १९८० की रात्रि को ७ बजे आपकी आयु पूर्णता को प्राप्त हुई। मैं यही मङ्गल कामना करती हूं कि आप यथास्व प्राशु नरदेह पाकर, संयमधारण कर सकलप्रकृतिविमुक्त हों। पण्डितरत्न * पूज्य १०५ स्व० क्षुल्लक श्री सिद्धसागरजी महाराज, मौजमाबाद स्व० ब्रह्मचारी पण्डितवर्य रतनचन्दजी मुख्तार सुचरित, परम श्रद्धावान्, मुनिभक्त, सरस्वतीभक्त, मिलनसार, कृतसिद्धान्तपारायण एवं समीचीन शङ्कासमाधानकर्ता पण्डितरत्नों में से एक थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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