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________________ ५५४ ] [ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार । कृष्ण के सम्यग्दर्शन व तीर्थकर प्रकृति के बंध से पूर्व ही भरकायु बंध चुकी थी। और यह नियम है कि परभव सम्बन्धी आयु के बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनी का ही वेदन करता है । (धवल पु० १० पृ० २३७ ) । अतः कृष्ण की भी प्रकाल मृत्यु नहीं हुई। -जं. ग. 26-9-63/1X/स. पन्नालाल परभव को प्रायु का बन्ध होने पर अकाल मरण नहीं होता शंका-किसी जीव ने ९९ वर्ष की आयु का बन्ध किया और उसने ६६ वर्ष की आयु को भोगकर परभव की आय का बन्ध कर लिया। फिर उसका यदि मरण हो जाता है तो ३३ वर्ष की आय को अगली किस पर्याय में जाकर भोगेगा या नहीं भोगेगा? यदि ३३ वर्ष को नहीं भोगता है तो आगम से विरोध आता है, कारण आगम में लिखा है कि जीव की आयु पूर्ण हुए बिना मरण होता नहीं और बिना आयु पूर्ण किये मरण होता है वह अकाल मरण है। परन्तु उस जीव के ९९ वर्ष में से ६६ वर्ष की आयु भोगने पर उसका अकालमरण नहीं होता। जबकि उसने अगली आयु का बन्ध कर लिया है। समाधान-आगामी भव की आयु का बंध हो जाने के पश्चात् अकाल मरण नहीं होता है। अर्थात परभव की आयु का बंध हो जाने पर भुज्यमान आयु जितनी शेष रह गई है उस आयुस्थिति के पूर्ण होने पर ही मरण होगा उससे पूर्व मरण नहीं होगा। "परमवि आउए बद्ध पच्छा भुजमाणाउअस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चेव वेवेदित्ति।" (धवल पु० १० पृ० २३७ ) अर्थ-परभव सम्बन्धी मायु के बन्धने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनी का ही वेदन करता है। जिस कर्मभूमिया मनुष्य या तियंच ने परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध नहीं किया है उसकी आयु का विष आदि के निमित्त से कदलीघात हो सकता है । अकालमरण में भी आयु कर्म के निषेक अपना फल असमय में देकर झडते हैं. बिना फल दिये नहीं जाते हैं। श्री अकलंकदेव ने राजवातिक अध्याय २ सत्र ५३ की टीका में कहा "बत्वैव फलं निवृत्तः, नाकृतस्य कर्मणः फलमुपभुज्यते, न च कृतकर्मफलविनाशः अनिर्मोक्षप्रसङ्गात, दानादिक्रियारम्भा-मावप्रसाच्च । किंतु कृतंकर्म कर्ने फलंदत्वैव निवर्तते वितता पटशोषवत् अयथाकालनिर्वृतः पाक इत्ययं विशेषः।" प्रायु उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं, अतः कृत नाश की आशंका उचित नहीं है। जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है और वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी प्रकार बाह्य निमित्तों से समय से पूर्व प्रायु के निषेक झड़ जाते हैं । यही अकाल मृत्यु है। –णे. ग. 29-8-68/VI/ रो. ला. जैन शंका-यदि परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध हो जाने के पश्चात् भुज्यमान आयु का अन्त अर्थात अकाल मरण नहीं होता है तो राजाणिक का अकाल मरण क्यों हुआ, क्योंकि उसके नरकाय का बन्ध सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व में हो चुका था ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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