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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] समाधान-केवली समुद्घात में आत्म प्रदेश निकलते समय; पहिले समय में दंडाकार, दूसरे समय में कपाटाकार, तीसरे समय में प्रतराकार और चौथे समय में लोक पूर्ण आकार होते हैं; अर्थात् आत्मप्रदेशों के फैलने में चार समय लगते हैं। संकोच होते; पहिले समय में प्रतर आकार, दूसरे समय में कपाट आकार, तीसरे समय में दण्ड आकार चौथे समय में शरीर में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार संकोच होने में भी चार समय लगते हैं। विस्तार वसंकोच दोनों के काल को मिलाने से केवली समुद्घात का काल ८ समय होता है। कुछ ने शरीर में प्रात्म प्रदेशों के प्रवेश होने को केवली समुद्घात नहीं माना है अत: उनके मत में केवली समुद्घात का काल सात समय होता है। केवल दृष्टि का भेद है, वास्तव में कोई भेद नहीं है। एक अपेक्षा से ८ समय काल है और दूसरी अपेक्षा से ७ समय काल है । शेष ६ समुद्घातों का काल असंख्यात समय है। कलकत्ता से प्रकाशित राजवार्तिक में असंख्यात के स्थान पर 'संख्यात' छप गया है। यह छापे की अशुद्धि है । सो अपनी प्रति शुद्ध कर लेनी चाहिये । -जे.ग. 16-8-62/.../स. प्र. णन केवली समुद्घात के बाद योगनिरोध शंका-समुद्घात क्या १३ वें गुणस्थान के अन्त में ही होता है या समुद्घात के बाद भी १३ वा गुणस्थान रहता है ? समाधान-केवलीसमुद्घात के पश्चात् भी १३ वा गुणस्थान शेष रहता है, जिस में योगनिरोध होता है। कहा भी है ___ "केवली-समुद्घात से अन्तमुहूर्त जाकर एक अन्तर्मुहूर्त में योग निरोध करता है। योग का निरोध हो जाने पर नाम, गोत्र व वेदनीय ये तीनों अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक अयोगकेवली रहते हैं।" (ध. पु.६ पृ० ४१२ से ४१७ तक विशेष कथन है) -जे.ग. 5-12-66/VIII/र. ला. जैन केवली समुद्घात का हेतुभूत कम शंका-केवली भगवान के समुद्घात किस कर्म के उदय से होता है ? आत्मा के प्रदेशों के सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने में कौनसे कर्म का उदय काम करता है या किसी कर्म की अपेक्षा बिना ही होता है ? समाधान-सभी केवली, केवली समुद्घात करते हैं या नहीं इस विषय में विभिन्न मत हैं। कौन केवली समुद्घात करते हैं, इस विषय में भी मतभेद है। जिसका कथन धवल पु. १ पृ. ३०२ पर किया गया है। कर्म प्रकृतियों के उत्तरोत्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं। संभव है उनमें कोई ऐसी कर्मप्रकृति हो जिसके कारण केवली-समुद्घात होता हो, किन्तु आर्ष ग्रन्थों में किसी ऐसी कर्मप्रकृति का उल्लेख देखने में नहीं पाया। श्रीकुन्द. कन्द आचार्य ने प्रवचनसार गाथा ४४ में केवली की क्रियाओं को बिना इच्छा के, स्वभाव से कहा है। वह गाथा इसप्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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