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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : (१० ख० पु० ७ पृ० २९९-३०० ) मरण से पूर्व प्रात्मा के समस्त प्रदेश मूलशरीर में पुनः प्रवेश कर जावें ऐसा एकांत नियम नहीं है, क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात का काल पूर्ण होने से पूर्व भी मरण हो जाता है । -जं. सं. 10-7-58/VI/क. दे. गया निस्सरणात्मक तैजस व प्राहारक शरीर कथंचित् स्थूल हैं शंका-निस्सरणात्मक तेजस शरीर सूक्ष्म है-या स्थूल ? यह किस इन्द्रिय का विषय है ? आहारकशरीर स्थूल है या सूक्ष्म ? समाधान-स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा निस्सरणात्मक तेजस वर्गणा ग्राह्य है। निस्सरणात्मक तेजसशरीर सूक्ष्म ही हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । आहारक शरीर स्थूल होते हुए भी अन्तर्मुहूर्त में ४५ लाख योजन तक चला जाता है। -पत्र 31-3-79/II/ज. ला. जैन, भीण्डर निस्सरणात्मक तैजसशरीर समुद्घात छठे गुणस्थान में ही होता है शहा-राजवातिक अध्याय २ सूत्र ४९ वातिक ८ पृ० १५३ पर लिखा है कि "अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसात दावार्थो भवति"। इसका स्पष्ट अभिप्राय समझाइये। समाधान-जो मुनि उग्र चारित्र वाला है, किन्तु अतिक्रोध प्राजाने से जीवप्रदेश सहित औदारिकशरीर से बाहर निकलकर दाह्यपदार्थ को घेरकर उस दाह्य पदार्थ को इस प्रकार पकाता है जैसे कि हरी सब्जी अग्नि पर पकती है। यदि वह निस्सरणात्मक तैजस शरीर चिरकाल-देरी तक ठहर जाता है तो वह दाह्यपदार्थ जो पका था, भस्मीभत हो जाता है। दूसरा अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है-(वृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा १० की टीका को देखते हए ) यदि निस्सरणात्मक तेजस शरीर चिरकाल तक ठहरता है तो वह निस्सरणात्मक तैजसशरीर स्वयं अग्निरूप दाह्य पदार्थ बन जाता है। (अर्थात् जलने लगता है ) परन्तु तैजस शरीर सूक्ष्म है, अतः उसका जलना सम्भव नहीं है। यह तेजस शरीर प्रमत्तविरत नामक छठे गुणस्थान में ही निकलता है और जब तक शरीर में प्रवेश नहीं करता तब तक वह संयमी बना रहता है, क्योंकि तैजस समुद्घात प्रमत्तविरत के ही होता है। वह मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में नहीं होता। -पत्र 25-4-79/I-II/ज. ला. जैन, भीण्डर अशुभ तैजससमुद्घात का गुणस्थान शंका-ध० पु० ५ को प्रस्तावना में अशुभ तेजस द्रव्यलिंगी के निकलता है तो वह किस आधार पर लिखा है ? ऋद्धियां तो सम्यग्दृष्टि के ही होती हैं। समाधान-ध० पु० ५ की प्रस्तावना पृ० ३१ पर जो यह लिखा है-'अशुभं तेजस का उपयोग प्रमत्त साध नहीं करते। जो करते हैं, उन्हें उस समय भावलिंगी साधु नहीं किन्तु द्रव्यलिंगी समझना चाहिये।' वह पूर्व संस्कार के बल पर लिखा गया है, किन्तु यह धारणा आगम के विरुद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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