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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५ सतत अध्ययन अभीक्ष्णज्ञानोपयोग कहलाता है परन्तु इसमें भी यदि ख्यातिलाभ, वित्तोपार्जन आदि की गन्ध है तो यह भी अनुपयोगी सिद्ध होता है । अभीक्ष्णज्ञानोपयोग केवल अध्ययन या वाचनारूप ही नहीं है अपित चिन्तन, स्मरण. आम्नाय आदि रूप भी है। भौतिक विकास के वर्तमान युग में इस ज्ञान का परिशीलन करने वाले विरले ही जन हैं। उन्हीं गिने-चुने विरले जनों में सर्वोपरि रहे स्वर्गीय पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार ! जैन-जगत् में ऐसा कौन विबुध है जो इनको नहीं जानता हो ! आगम का प्रगाढ़ ज्ञान आपमें विकसित हुआ था। यह ऐसे ही नहीं हो गया, इसमें हेतु था आपका अभीक्ष्णज्ञानोपयोग। आपने सतत अठारह-अठारह घण्टे तक शास्त्रों का अभ्यास किया, उसके लिये वित्तोपार्जन को भी तिलाञ्जली दी। एक मात्र ज्ञान-पिपासा से प्रेरित होकर हस्तिनापुर आदि एकान्त स्थानों पर शुद्ध सात्त्विक "सकृद्भुक्ति" (एक बार भोजन) करके सिद्धान्तग्रन्थों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुशीलन किया। जैसे मन्दिर निर्माण की पूर्णता कलशारोहण के अनन्तर होती है। चारित्र की सफलता अन्तःक्रिया समाधिपूर्वक मरण में है व पुष्पों की सुभगता उनकी सुगन्ध में है; उसी प्रकार ज्ञान की श्रेष्ठता ज्ञानी के सच्चारित्र में निहित है। ज्ञानं पंगु क्रियाहीनं-भट्टाकलङ्क देव कहते हैं कि क्रिया ( सम्यगाचार ) विहीन ज्ञान पंगुवत् है । अतः मुख्तारजी मात्र ज्ञानाभ्यास में ही रत नहीं रहे थे पर साथ ही विकल चारित्रधारी भी थे। इन्होंने व्रतादि सम्बन्धी जो अध्ययन किया, उसे तद्रूप आचरण में भी ढाला; नीरगालन आदि श्रावकधर्म से सम्बद्ध क्रियाएँ पण्डितजी जिस विवेक के साथ करते थे उसके लिये वे स्वयं ही दृष्टान्त और दान्तिस्वरूप थे, अन्यत्र ऐसा विवेक शायद ही देखने को मिले। बहुत से व्यक्ति कहा करते हैं कि शास्त्राभ्यास कैसे करें? कोई ज्ञानी पढ़ावे, समझावे तो सम्भव है। किन्तु सर्वथा यह बात नहीं है, ऐसा मुख्तारजी ने अपने जीवन से सिद्ध कर दिखाया अर्थात् इन्होंने स्वयं के पुरुषार्थ से ही उपलब्ध सम्पूर्ण ग्रन्थों का अभ्यास किया; सिद्धान्तग्रन्थों का तो बहुत ही अधिक गहन, गम्भीर अध्ययन किया । सिद्धान्तभूषण मुख्तार सा० वास्तविक ही सिद्धान्तभूषण थे। निकट भूत में, जैनजगत् में आर्षग्रन्थों के अध्येता व सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों के समाधानकर्ता यदि कोई थे तो वे मात्र मुख्तारजी थे। सप्तति अधिक आयुष्मान होकर भी आपकी अध्ययनशीलता व कर्मठता युवकों को लज्जित करने वाली थी। आपका प्रत्येक कार्य में यही अनुचिन्तन रहता था कि अब किस प्रकार के परिणाम हो रहे हैं और उनसे किस प्रकार का कर्मसञ्चय हो रहा है। इससे ऐसा लगता था कि अवधिज्ञानी के सदृश इन्हें कार्माणवर्गणाएँ गोचर हो रही हों। वस्तुतः यह आगमाभ्यास की एक सूक्ष्म वीक्षणा ही थी। पाप धर्मजगत् में एक आलोक थे जो धर्मात्माओं के सिद्धान्तग्रन्थों सम्बन्धी अज्ञान तिमिर का परिहार करता था। चित्त में यह विचार एवं क्षोभ है कि अब ऐसा आलोक प्रदान करने वाला नहीं रहा । अन्त में, यही शुभकामना है कि स्व० पण्डितजी स्वर्ग में भी ऐसे ही अपना ज्ञानालोक प्रदान करते रहें और आगामी भव में कर्मसमूह का विनाश कर लोक और अलोक की जहाँ सन्धि है एवं जो लोक की सीमा है, वहाँ निस्सीम ज्ञानालोक के साप शाश्वत स्थित हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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