SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 583
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५३९ एक ही काल में नन्दीश्वरद्वीप में पूजा हो रही है, उसी समय किसी तीथंकर का जन्म होगया. किसी को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और किसी को मोक्ष हो गया। मूल वैक्रियिकशरीर द्वारा एक ही काल में इन सब कार्यों में उपस्थित होना असम्भव है अतः एक स्थान पर देव मूल वैक्रियिक शरीर द्वारा जाएगा और अन्य स्थानों पर उत्तर वैक्रियिक शरीर द्वारा उपस्थित होगा। उन कार्यों में एक अन्तमुहर्त से अधिक काल लगने पर वह देव पुनः पुनः विक्रिया के द्वारा अपनी उपस्थिति बनाये रखता है। -पताधार/ज. ला. जैन, भीण्डर औदारिक तथा वैक्रियिक शरीर में अन्तर शंका-देव और नारकियों का शरीर वैक्रियिक होता है, क्योंकि वे अपना आकार बदल सकते हैं । ऋद्धि धारी मुनि भी अपना आकार बदल लेते हैं जिनका शरीर औदारिक होता है। फिर औगरिक व वैक्रियिकशरीर में क्या अन्तर है ? समाधान-द्वीन्द्रिय आदि तिर्यचों के और मनुष्यों के औदारिकशरीर में हाड, मांस तथा रज-वीर्य आदि सप्त धातु होती हैं, किन्तु देव और नारकियों के वैक्रियिकशरीर में सप्त धातु नहीं होती हैं। इन दोनों शरीरों में इस प्रकार मन्तर है। -जं. ग. 15-3-70/LX/जि. प्र. जैन नोकर्म समयप्रबद्ध संबंधी प्ररूपणा शंका-गोम्मटसार जीवकांड गाथा २५५ में औदारिक और वैक्रियिक शरीरों के समयप्रबद्धों की स्थिति आयु प्रमाण बतलाई है। यह समयप्रबद्ध कर्मवर्गणा है या नोकर्मवर्गणा है ? यदि नोकर्मवर्गणा है तो नोकर्मवर्गणा तो प्रतिसमय आती और जाती है। यदि कर्मवर्गणा है तो नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ाकोड़ी सागर फिर मायु प्रमाण कैसे होगी? समाधान-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २५५ में नोकर्म वर्गणा के समयप्रबद्ध से प्रयोजन है. कर्म वर्गणारूप समयप्रबद्ध से प्रयोजन नहीं है। नोकर्म वर्गणारूप जो समयप्रबद्ध आता है, वह सबका सब दूसरे समय में निर्जीर्ण नहीं हो जाता है, किन्तु आयु पयंत उस समयप्रबद्ध की गुणहानिरूप रचना हो जाती और प्रायुपर्यंत प्रतिसमय एक निषेक की निर्जरा होती रहती है। -जं. ग, 15-11-65/IX/र. ला. जैन पाहारक शरीर तथा तैजस शरीर में अन्तर शंका-आहारकशरीर और तेजसशरीर में क्या अन्तर है ? समाधान-आहारकशरीर शुभ, विशुद्ध, व्याघात रहित है और प्रमत्तसंयतगुणस्थान वाले के ही होता है। आहारकशरीर कदाचित लन्धि विशेष के सदभाव को जताने के लिये, कदाचित् सक्षम पदार्थ का निश्चय करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy