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________________ ध्यक्तित्व और कृतित्व । [ ५२६ पुद्गल वर्गरणा २३ वर्गणाओं के कार्य शंका-पुद्गलवर्गणा कितनी हैं, उनमें से प्रत्येक का क्या कार्य है ? समाधान-पुद्गलवर्गणा २३ हैं। उनमें से 'आहार वर्गणा' से औदारिक, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर बनता है। वचनवर्गणा से शब्द बनते हैं। मनोवर्गरणा से मन बनता है। तैजसवर्गणा से तेजसशरीर और कार्मारणवर्गणाओं से कार्माणशरीर बनता है। इसप्रकार पाँच वर्गणाओं का तो कार्य बतलाया गया है शेष वर्गणामों का क्या कार्य है, ऐसा कथन देखने में नहीं आया। -जं. ग. 24-9-67/VII/ज. प्र. म. कु. अणुवर्गणा | अनादि बन्ध वाला परमाणु सम्भव नहीं शंका-क्या कोई ऐसा पुद्गल परमाणु भी सम्भव है, जिसका बन्ध अनादि से चला आ रहा हो ? सामान्य की अपेक्षा तो महास्कन्ध आदि का बन्ध अनादि-अनन्त है हो । समाधान -पुद्गल द्रव्य की दो पर्याय हैं । 'परमाणु' पुद्गल की शुद्ध पर्याय है 'स्कन्ध' पुद्गल की अशुद्ध पर्याय है। नियमसार गाथा २८ की टीका में कहा भी है "परमाणुपर्यायः पुद्गलस्य शुद्धपर्यायः । स्कन्धपर्यायः स्वजातीयबन्धलक्षण लक्षित्वादशुद्धः इति ।" परमाणु पर्याय पुद्गल की शुद्धपर्याय है । स्कन्धपर्याय स्वजातीय बन्धरूप लक्षण से लक्षित होने के कारण अशुद्ध है। 'परमाणु' पुद्गल द्रव्य की पर्याय है अतः वह अनादि अनन्त काल तक प्रबन्ध या बन्ध अवस्था में नहीं रह सकता है, क्योंकि पुद्गल का लक्षण पूरण व गलन है । भेदादिभ्यो निमित्तेभ्यः पूरणाद्गलनादपि । पुद्गलानां स्वभावजैः कथान्ते पुद्गला इति ॥५५॥ ( तत्त्वार्थसार अधिकार ३) भेद आदि के निमित्त से जिनमें पूरण ( नये परमाणुओं का संयोग ) और गलन ( संयुक्त परमा गुमों का वियोग ) होता है उन्हें पुद्गलों के स्वभाव के ज्ञाता पुरुष पुद्गल कहते हैं । पुद्गल के परमाणुओं का परस्पर बन्ध अनादि कालीन नहीं है अतः ध. पु. १४ सूत्र ३१ पृ. २९ पर पुद्गल के अनादि बन्ध नहीं कहा है । वह प्रकरण इस प्रकार है "जो सो अणाविय विस्ससाबंधोणाम सो तिविहो-धम्मात्थिया, अधम्मत्थिया, आगासस्थिया चेदि ॥३०॥ जीवत्थिया पोग्गलस्थिया एत्थ किष्ण परविदा? ण, तासि सक्किरियाणं धम्मस्थियादीहि सह अणादियविस्ससा. बधाभावादो।ण तासि पवेशबंधो वि अणावियो वइससियो अस्थि, पोग्गलतष्णहाणुववत्तीदो तप्पदेसाणं पि संजोगबिजोग सिद्धीए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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