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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५२७ द्विसंयोगी प्रादि सान्निपातिक भावों के उदाहरण शंका-राजवातिक अ.-२ सू. ७ को टीका में सान्निपातिक भावों का कथन किया है । वे किस गुणस्थान में सम्भव हैं ? समाधान-द्विभाव संयोगी १. औदयिक औपशमिक 'मनुष्य-उपशान्त क्रोध' यह अनिवृत्तिकरण गूणस्थान में सम्भव है। २. 'मनुष्य क्षीण कषाय' यह बारहवें गुणस्थान में सम्भव है। ३. 'मनुष्य-पंचे चारों गतियों में पंचेन्द्रिय जीव के सम्भव है। ४. 'लोभी जीवः' यह प्रथम गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक संभव है। ५. 'उपशांत लोभः क्षीण दर्शनमोहः क्षायिक सम्यग्दृष्टिके ग्यारहवें गुणस्थान में सम्भव है। ६. 'उपशान्त मान अभिनिबोधिक ज्ञानी' यह उपशमश्रेणी-नवमें गुणस्थान में सम्भव है। ७. 'उपशांत माया भव्य' यह भी उक्त नवमें गणस्थान में सम्भव है। ८. 'क्षायिकसम्यग्दृष्टि श्रु तज्ञानी' यह चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक सम्भव है । ६. 'क्षीणकषाय भव्य' यह बारहवें से चौदहवें गुरणस्थान तक सम्भव है। १०. 'अवधिज्ञानी-भव्य' यह चौथे गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक जानना चाहिये । इसी प्रकार त्रि भाव संयोगी आदि में जान लेना चाहिये । १. 'मनुष्य उपशांतमोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि' यह ग्यारहवें गुणस्थान में सम्भव है। २. 'मनुष्य उपशान्त क्रोध वाग्योगी' यह उपशमश्रेणी-नवमें गुणस्थान में सम्भव है। ३. 'मनुष्य उपशांतमान जीवं' यह भी उक्त नवमें गुणस्थान में सम्भव है। ४. 'मनुष्य क्षीणकषाय श्रुतज्ञानी' यह बारहवें गुरणस्थान में सम्भव है । ५. 'मनुष्य क्षायिकसम्यग्दष्टि जीव' यह चौथे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक सम्भव है। ६. 'मनुष्य मनोयोगी जीव' यह भाव मनुष्य के प्रथम गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक सम्भव है । ७. 'उपशान्त मान क्षायिकसम्यग्दृष्टि काययोगी' यह भाव उपशमश्रेणी-नवमें गुणस्थान में संभव है। ८. 'उपशान्त वेद क्षायिकसम्यग्दृष्टि भव्य' यह भी उक्त नवमें गुणस्थान में सम्भव है। ९. 'उपशान्तमान मतिज्ञानी जीव' यह भी उक्त नवमें गुणस्थान में सम्भव है। १०. 'क्षीणमोह पंचेन्द्रिय भव्य' यह बारहवें गुणस्थान में सम्भ है । इसी प्रकार चतुरादि संयोगी भावों में भी लगा लेना चाहिये । -जं. ग. 23-3-78/VII/ *. ला, सेठी सान्निपातिक भाव अनेक प्रकार से बनाये जा सकते हैं शंका-राजवातिक अध्याय २ सूत्र ७ वातिक २२ में औदयिक-औपशमिक-पारिणामिक त्रिसंयोगी सान्निपातिक भाव के कथन में 'मनुष्य उपशान्त मान जीव' ऐसा कहा है तो क्या 'देव उपशम सम्यक्रवी जीव' ऐसा नहीं कह सकते ? ऐसे ही अन्य भाव नहीं कह सकते क्या ? समाधान-श्री अकलंकदेव ने त्रिसंयोगी भावों के एक-एक भाव उदाहरणरूप से लिखे हैं, अपनी ओर से अन्य भाव भी बना सकते हैं अतः 'देव उपशमसम्यक्त्वी जीव' ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं है। इसीप्रकार अन्य त्रिसंयोगी भावों का कथन किया जा सकता है। ___-~-पत्राचार/ज. ला. जैन, भीण्डर जीवत्व पारिणामिक, ध्रौव्यस्वरूप, नित्य, चैतन्यरूप व अविनाशी है __ शंका-पारिणामिकजीवत्वभाव क्या द्रव्य है, या गुण है या पर्याय है ? इसका कार्य क्या है ? जब साधक का लक्ष्य शद्ध जीवतत्व की प्राप्ति है तो पारिणामिक भाव को कारणशद्धपर्याय मानने में क्या बाधा है ? उसी का अवलंबन लेकर तो शुद्ध जीवतत्त्व की प्राप्ति होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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