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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : वें, १० वे गुणस्थानों में इतने संक्लेशपरिणाम नहीं होते जिससे उपशमकरण बंध हो सके, किन्तु इन गुणस्थानों में विशुद्ध परिणामों के कारण चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशम होता है । -- जै. ग. 5-12-66 / VIII / र. ला जैन ५१४ ] उद्वेलना प्रकृतियाँ एवं उद्वेलनाकर्ता शंका - गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ३५१ बड़ी टीका पृ. ५०५ तेजकाय वायुकाय के उत्पन्न स्थान विषे १४४ की सत्ता और उद्व ेलना करने पर १३१ की सत्ता बतलाई है । तो क्या वहाँ पर १४४ की सत्ता से भी मरण कर सकता है ? हमारी यह शंका है कि तेजकाय वायुकाय का जीव उद्घोलना प्रकृतियों में से प्रारम्भ की १० प्रकृतियों का तो नियम करके उद्व ेलना करेगा ही, क्या यह ठीक है ? समाधान - १४४ प्रकृतियों की सत्ता के साथ जीव तेजकाय व वायुकाय में उत्पन्न होकर क्षुद्रभव ग्रहण मात्र काल के पश्चात् १४४ प्रकृतियों की सत्ता के साथ मरण करके अन्य काय में उत्पन्न हो सकता है । यदि वह दीर्घकाल तक तेजकाय वायुकाय में भ्रमण करता रहे तो १३ प्रकृतियों की उद्वेलना कर १३१ प्रकृतियों के साथ अन्य काय में उत्पन्न हो सकता है । १० प्रकृतियों की उद्व ेलना करने के पश्चात् ही तेजकाय, वायुकाय से निकलता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । उद्वेलना संक्रम का स्वरूप व दृष्टान्त शंका-उद्बोलना संक्रम का क्या स्वरूप है ? दृष्टान्त द्वारा समझाइये | समाधान - श्रधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों परिणामों के बिना विवक्षित कर्मप्रकृति के प्रदेशों को अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमण होकर उस विवक्षितप्रकृति का प्रभाव हो जाना उद्वेलना है । श्री वीरसेन स्वामी ने कहा भी है- - जै. ग. 25-7-66/IX / र. ला. जैन 'तस्थुब्वेल्लणसंकमो णाम करणपरिणामेहि विणा रज्जुव्वेल्लणकमेण कम्मपदेसाणं परपथ डिसरूवेण छोहणा ।' ( कषायपाहुड़ पुस्तक ९ पृ० १७० ) अर्थ —करणपरिणामों के बिना रस्सी के उकेलने के समान कर्मप्रदेशों का पर प्रकृतिरूप से संक्रान्त होना नाक्रम है । जैसे सम्यग्दृष्टिजीव मिथ्यात्व में जाकर अन्तर्मुहूर्तं पश्चात् उद्व ेलनासंक्रम का प्रारम्भ करे हैं । सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के स्थितिघातकाण्डकों के द्वारा पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण उद्वेलनाकाल के अन्त तक निरन्तर प्रदेश संक्रम होता है । उद्वेलनप्रकृति तेरह हैं :- १. आहारकशरीर, २. आहारकशरीरांगोपांग ३. सम्यक्त्वप्रकृति, ४. सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, ५. देवगति, ६. देवगत्यानुपूर्वी, ७. नरकगति, ८ नरकगत्यानुपूर्वी, ६. वैक्रियिकशरीर, १०. वैक्रियिकशरीरांगोपांग, ११. मनुष्यगति, १२. मनुष्यगत्यानुपूर्वी, १३. उच्चगोत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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