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________________ ध्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५११ समाधान-देशघाति का उदय और सर्वघाती का अनुदय हो उसको क्षयोपशम कहते हैं। जिस कर्म का क्षयोपशम होता है, तत्कर्म सम्बन्धी देशघाती का उदय और सर्वघाती का अनुदय होना चाहिये। यदि अन्य कर्म भी उस गुण के क्षयोपशम में बाधक हों तो उस कर्म के भी उस गुणको घात करने वाले सर्वघाती स्पर्द्धकों का अनुदय होना चाहिये जैसे मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम में मतिज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्द्धकों का तो वर्तमान में अनुदय होना चाहिये और मतिज्ञानावरण के देशघाती स्पर्द्धकों का उदय होना चाहिये; साथ ही साथ उसके अनुकूल वीर्य-अन्तराय कर्म के सर्वघातीस्पर्द्धकों का अनुदय और देशघाती का उदय होना चाहिये, क्योंकि आत्मा का वीर्यगुण, ज्ञानगुण में सहकारी कारण है। किंतु मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम में केवलज्ञानावरण आदि चार ज्ञानावरण कर्मों के सर्वघाती तथा देशघातीस्पर्द्धकों की कोई अपेक्षा नहीं है। जो सर्वधातीप्रकृति हैं. उनके स्पर्टक तो सर्वघाती होते हैं। सम्यक्त्वप्रकृति के अतिरिक्त जितनी देशघातीप्रकृति हैं उनके स्पद्धक देशघाती भी होते हैं और सर्वघाती भी होते हैं । सम्यक्त्वप्रकृति के स्पर्द्धक देशघाती होते हैं, सर्वघाती नहीं होते हैं। मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानावरण में देशघाती और सर्वघाती दोनों प्रकार के स्पर्द्धक होते हैं। केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा पांच, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायों में सर्वघाती प्रकृतियाँ हैं और घातिया कर्मों की शेष प्रकृतियाँ देशघाती हैं। -ज. सं. 24-5-56/VI/फ. च. बाारा कषायों के शक्तितः चार भेदों [जघन्य अजघन्य प्रादि का अभिप्राय] शंका-शक्ति की अपेक्षा कषायों के चार-चार भेद कहे गये हैं, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य, जघन्य । क्या उत्कृष्ट से अनन्तानबन्धीकषाय का अभिप्राय है? क्या अनुत्कृष्ट से अप्रत्याख्यानावरण का, अजघन्य से प्रत्याख्यानावरण का, जघन्य से संज्वलनकषाय का प्रयोजन है ? समाधान-अनुत्कृष्ट में जघन्य और अजघन्य दोनों गभित हैं। अजघन्य में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों गभित हैं। कहा भी है "उक्कस्स अणुभागवेयणा सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमसव्ववियप्पाणमजहण्णम्हि दंसणादो।" (धवल पु. १२ पृ. ५) अर्थ-उत्कृष्ट अनुभाग वेदना कथञ्चित् अजघन्य है, क्योंकि अजघन्य पद में जघन्य से आगे के सभी विकल्प देखे जाते हैं। "अणुक्कस्सवेयणा सिया जहण्णा, उक्कस्सादो हेटिमसम्ववियप्पेसु अणुक्कस्ससष्णिदेसु जहष्णस्स वि पबेससणावो । सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमवियप्पेसु अजहण्णसण्णिदेसु अणुक्कस्सपदस्स वि पवेसदसणादो । (धवल पु. १२ पृ. ६) अनुत्कृष्ट अनुभाग वेदना कथञ्चित् जघन्य है, क्योंकि उत्कृष्ट से नीचे के अनुत्कृष्ट संज्ञावाले सब विकल्पों में जघन्य पद का भी प्रवेश देखा जाता है। कथञ्चित् अजघन्य है, क्योंकि जघन्य से ऊपर के अजघन्य संज्ञावाले समस्त विकल्पों में अनुत्कृष्टपद का भी प्रवेश देखा जाता है। "जहण्णवेयणा सिया अणुक्कस्सा, उक्कस्सो हेद्विभावियप्पम्मि अणुकस्ससण्णिवम्मि जहण्णस्स विसम्भवादो।" (धवल पु. १२ पृ. ६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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