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________________ ४६४] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : जाता है अतः अनादि मिथ्याडष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने पर मोहनीयकर्म की २८ प्रकृतियों का सत्त्व हो जाता है। पुनः मिथ्यात्व में जाने पर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति इन दोनों की उद्वेलना प्रारम्भ हो जाती है। उनमें से प्रथमसम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना होकर २७ प्रकृति का दूसरा सत्त्वस्थान होता है। यह स्थान मिथ्याष्टि के ही सम्भव है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना हो जाने पर सादिमिथ्यादृष्टि के अथवा अनादिमिथ्यादृष्टि के २६ प्रकृति का तीसरा सत्त्वस्थान होता है। जब २८ प्रकृति के सत्त्ववाला सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीचतुष्क की विसंयोजना कर देता है तब २४ प्रकृति का चौथा सत्त्वस्थान होता है। दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा करनेवाला सम्यग्दष्टि जब मिथ्यात्वकर्म का क्षय कर देता है तब २३ प्रकृति का पाँचौं सत्त्वस्थान होता है। सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय कर देने पर २२ प्रकृति का छठवा सत्त्वस्थान होता है । सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय कर देने पर २१ प्रकृति का सातवां सत्त्वस्थान होता है। इस सम्बन्ध में आर्षग्रन्थ का प्रमाण इस प्रकार है "अट्ठावीसाए विहत्तिओ को होवि ? सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा। सत्तावीसाए वित्तिमओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी। अट्ठावीससंतकम्मिओ उज्बेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्ठी सत्तावीस वित्तिओ होवि । छठवीस विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी णियमा । चउवीसाए विहत्तिओ को होवि ? अणंताणुबंधिविसंजोइवे सम्माविद्वी वा सम्मामिच्छाविट्ठी वा अण्णयरो। अट्ठावीस संतकम्मिएण अगंताणुबंधिविसंजोइवे चउवासविहत्तिओ। को विसंजोअओ ? सम्मादिट्ठी। चउवीससंतकम्मिय सम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छतं पडिवण्णेसु तस्थ चउवीसंपयडिसंतुवसंभादो। तेवीसाए बिहत्तिओ को होवि ? मस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते खविदे-सम्मत-सम्मामिच्छत्ते सेसे वावीसाए वित्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खत्रिवे समत्त सेसे । एकावीसाए विहत्तिओ को होदि ? खीण सणमोहणिज्जो।" (जयधवल पु. २) अर्थ-पट्ठाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान का स्वामी कौन होता है ? सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि या मिथ्याइष्टि जीव अट्ठाईस प्रकृतिकविभक्ति ( सत्त्व ) स्थान का स्वामी होता है। सत्ताईसप्रकृतिकसत्त्वस्थान का स्वामी कौन होता है ? मिथ्यादृष्टिजीव सत्ताईसप्रकृतिस्थान का स्वामी होता है। अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला मियादष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है। छब्बीसप्रकृतिक स्थान का स्वामी कौन होता है ? नियम से मिथ्यादृष्टि जीव २६ प्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है। चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी कौन होता है ? अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाला सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्याष्टि जीव चौबीसप्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है। अट्ठाईसप्रकृतियों की सत्तावाला अनन्तानबन्धी की विसंयोजना कर देने पर चौबीसप्रकृतियों की सत्तावाला होता है। विसंयोजना कौन करता है ? सम्यम्हष्टिजीव विसंयोजना करता है । चौबीसप्रकृतियों को सत्तावाले सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्मिध्यात्व को प्राप्त होने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि के चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान बन जाता है । तेईसप्रकृतिकस्थान का स्वामी कौन है ? जिस मनुष्य या मनुष्यिणी के मिथ्यात्वकर्म का क्षय हो गया है। दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां शेष रह गई हैं वह तेईसप्रकृतिक स्थान का स्वामी है। बाईसप्रकृतिक स्थान का स्वामी कौन है ? जिस मनुष्य या मनुष्यनी के मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय हो गया है, सम्यक्त्वप्रकृति शेष रह गई है, वह २२ प्रकृतिकस्थान का स्वामी है। इक्कीसप्रकृतिक सत्वस्थान का स्वामी कौन होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयकर्म का क्षय कर दिया है वह इक्कीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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