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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४६१ इस धवल सिद्धांतग्रन्थ से इतना स्पष्ट हो जाता है कि गोत्रकर्म की सूक्ष्म व्याख्या केवलज्ञान गम्य है, छास्थों के ज्ञानगम्य नहीं है। में. ग. 19-11-70/VII/श्रां. कु. बड़जात्या उदय क्षय एवं अविपाक निर्जरा में अन्तर शंका-उबयाभावीक्षय और अविपाकनिर्जरा में क्या अन्तर है ? समाधान-क्षायोपशमिकभाव में सर्वधातिस्पर्द्धक अपने रूप उदय में न आकर देशघातीरूप होकर उदय में आते हैं ऐसे सर्वघातिस्पर्टकों की उदयाभावीक्षय संज्ञा है। यह मिथ्याडष्टि व सम्यग्दृष्टि दोनों के होता है। तपके द्वारा जिन कर्मों का स्थितिघात व अनुभागघात करके स्वरूप से या परप्रकृतिरूप से उदय में लाया जाता है उन कर्मों की अविपाकनिर्जरा ऐसी संज्ञा है। अविपाकनिर्जरा मिथ्यादृष्टि के नहीं होती। यह केवल सम्यग्दृष्टि के ही होती है। -गै.सं. 24-1-57/VI/ब. बा. हजारीबाग केवलज्ञान तथा केवलज्ञानावरण शंका-केवलज्ञानावरणकर्म क्या बादलों के सदृश है ? जिसप्रकार सूर्य का अन्तरङ्ग में प्रकाश रहता है, किंतु बादल आ जाने के कारण सूर्य का बाह्य प्रकाश रुक जाता है। श्री षट्खण्डागम में भी सूर्य, बादल का दृष्टान्त विया है, किंतु श्रीमोक्षमार्गप्रकाशकजी में पण्डित टोडरमलजी ने इसका खण्डन किया है फिर केवलज्ञानावरणकर्म व छपस्थ अवस्था में केवलज्ञान किसप्रकार है ? समाधान-पखण्डागम पु०६ पत्र ७ पर यह शंका उठाई गई है कि 'ज्ञान के आवरण किये गये और आवरण नहीं किये गये प्रशों में एकता कैसे हो सकती है ?' इसका समाधान इसप्रकार किया गया है-'नहीं, क्योंकि राहु और मेघों के द्वारा सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल के आवरित और अनावरित भागों की एकता पाई माती है। यहां पर मेघ और सूर्यमण्डल का दृष्टान्त देकर यह समझाया गया है कि अनावरित सूर्यमण्डल भाग के द्वारा पदार्थ प्रकाशित होते हैं। आवरितभाग के अनावरित हो जाने पर उससे भी पदार्थ प्रकाशित होंगे अतः मेघों द्वारा सूर्यमण्डल के प्रावरितभाग में और अनावरितभाग में एकता है। इसीप्रकार ज्ञान के जो अंश अनावरित हैं उनसे पदार्थों का ज्ञान होता है और आवरित अंशों के अनावरित हो जाने पर उनसे भी पदार्थों का ज्ञान होगा। इस रष्टान्त का यह अभिप्राय नहीं है कि जिसप्रकार मेघों के प्रा जाने पर भी सूर्य का बाह्य में प्रकाश रुक जाता है, किन्तु अन्तरंग में सूर्य पूर्ण प्रकाशमान रहता है, इसीप्रकार केवलज्ञानावरणकर्म के द्वारा ज्ञान बाह्य सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं जानता, किन्तु अंतरंग में पूर्ण ज्ञान प्रकाशमान रहता है। इसी बात को पण्डितप्रवर टोडरमलजी मोक्षमार्गप्रकाशक में सातवें अध्याय के आरम्भ में स्पष्ट किया है-'कोउ ऐसा मान है, आत्मा के प्रदेशनिविर्षे तो केवलज्ञान ही है, उपरि आवरण है तातै प्रकट न हो है। सो यह भ्रम है। जो केवलज्ञान होइ तौ वज्रपटल आदि आडे होते भी वस्तु को जाने । कर्म को प्राई आये कैसे अटके । तातै कर्म के निमित्त ते केवलज्ञान का प्रभाव ही है । बहुरि जो शास्त्रविर्षे सूर्य का दृष्टान्त दिया है, ताका इतना ही भाव लेना जैसे-मेघपटल होते सूर्यप्रकाश प्रगट न हो है तैसे कर्म उदय होते केवलज्ञान न हो है बहुरि ऐसा भाव न लेना, जैसे सूर्यविष प्रकाश रहे है तैसे मात्माविर्षे केवलज्ञान रहे है । जाते दृष्टान्त सर्वप्रकार मिले नाहीं। बहुरि कोउ कहे कि आवरण नाम तो वस्तु के पाच्छादने का है, केवलज्ञान का सद्भाव नाही है तो केवलज्ञानावरण काहे को कहो हो ? ताका उत्तर-यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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