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________________ ४८८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : म्लेच्छ बंड में उत्पन्न हए म्लेच्छ तथा प्रार्य खण्ड में उत्पन्न हए शक, यवन प्रादि भी म्लेच्छ । "कर्मभूमिजाश्च शकयवनशबरपुलिन्दावयः।" ( सर्वार्थसिद्धि ३/६ ) शक, यवन, शबर, पुलिन्द आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। -जे.ग. 19-11-10/VII/ शां. कु. बड़जात्या पंचम गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यक्त्वी के उच्चगोत्र के उदय के बारे में मतद्वय श्रीब्र राजमलजी [प्राचार्य श्री १०८ शिवसागरजी संघस्थ को शंका] शंका-पंचमगुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्य के नीचगोत्र का उदय हो सकता है या नहीं ? समाधान-इस सम्बन्ध में गोम्मटसार के कर्ता श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती तथा धवलाकार श्री वीरसेन आचार्य के भिन्न-भिन्न मत हैं। गोम्मटसार के मतानुसार तो 'पंचमगुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्य' नीच गोत्री हो सकता है जैसा कि कहा भी है-'खाइयसम्मो देसो गर एव जदो तहि ण तिरियाऊ। उज्जोव तिरयगदी तेसि अयदम्हि वोच्छेदो ॥३२९॥' कर्मकांड । अर्थ-देशसंयतनामक पांचवें गुणस्थान में रहनेवाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्य ही होता है, इस कारण उसके तियंचायु, उद्योत और तियंचगति इन तीनों का उदय नहीं है। इसीलिये इन तीनों की उदयव्युच्छित्ति असंयतगुणस्थान में हो जाती है। नोट-यहाँ पर नीचगोत्र की उदयव्युच्छित्ति नहीं कही गई है, अतः पंचमगुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि के नीचगोत्र का उदय भी संभव है। धवल पुस्तक ८ पृष्ठ ३६३ पर कहा है-'खइयसम्माइदिसंजदासंजदेसु उच्चागोदस्स सोदओ णिरंतरो बंधो' अर्थ-क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में उच्चगोत्र का स्वोदय एवं निरंतर बंध होता है। नोट-इससे स्पष्ट है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत के उच्चगोत्र का ही उदय होता है अन्यथा उच्चगोत्र का बंध परोदय से भी कहते । -ने. सं. 11-12-58/V/VI/........ म्लेच्छों के नीचगोत्र का उदय है तथा कथंचित् उच्चगोत्र का भी शंका-म्लेच्छखण्ड में कौनसा गोत्र सम्भव है ? समाधान-मलेच्छखण्ड में नीच गोत्रसम्भव है कहा भी है-"न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तहव्यापारः। म्लेच्छाराजसमुत्पन्नप्रथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात् ।" ( धवल पृ. १३ पृ. ३८८) सम्पन्न जनों में जीवों की उत्पत्ति में इसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह तो म्लेच्छ राजा से उत्पन्न हुए बालक के भी उच्चगोत्र का उदय प्राप्त होता है। उच्चगोत्र का उदय किन मनुष्यों के पाया जाता है, उसका कथन करते हुए श्री वीरसेनआचार्य ने धवल पु. १३ पु. ३८९ पर निम्न प्रकार कहा है। "वीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारः कृतसम्बन्धान आर्यप्रत्ययाभिधान व्यवहारनिबन्धनानां परषाणां . सन्तानः उच्चंर्गोवं तत्रोत्पत्ति हेतु कर्माप्युच्चैर्गोत्रम् ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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