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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४७९ योग से कर्मप्रदेशों का आगमन होता है, यह कैसे जाना जाता है? वह इसी प्रदेश-अल्पबहत्व सूत्र से जाना जाता है। वह किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि वैसा होने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। इस कारण गुणितकौशिक को तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट-योगों से ही घुमाना चाहिये, क्योंकि इसके बिना उसके बहुत प्रदेशों का संचय घटित नहीं होता । क्षपितकौशिक को भी खङ्गधारा सदृश तत्प्रायोग्य जघन्ययोगों की पंक्ति से प्रवर्ताना चाहिये, क्योंकि अन्य प्रकार से कर्म और नोकर्म के प्रदेशों की अल्पता नहीं बनती। इसप्रकार शरीर नामकर्म से शरीर की रचना, शरीर से योगोत्पत्ति, योग से कर्म नोकर्म का संचय होता है। जं. ग. 16-11-72/VII/रतनलाल जैन बाह्य परिग्रह मात्र मूर्छा का फल नहीं है शंका-सर्वार्थसिद्धि पृ० २५३–'इससे ज्ञात होता है कि बाह्यपरिग्रह पुण्य का फल न होकर मूर्छा का फल है।' इसे स्पष्ट करने का कष्ट करें। क्या बाह्यपरिग्रह आदि का संयोग सातावेदनीय के उदय का फल नहीं है ? क्या लाभान्तराय के क्षयोपशम का फल नहीं है ? समाधान-शंकाकार ने सर्वार्थसिद्धि से जो शब्द उद्धत किये हैं वे मूलग्रन्थ के अनुवाद के शब्द नहीं हैं, किन्तु पं० फूलचन्दजी के विशेषार्थ के शब्द हैं, अतः वे प्रमाण कोटि में नहीं आते। आगम-अनुसार इस विषय पर विचार किया जाता है। दुःख नाम की जो कोई भी वस्तु है वह असातावेदनीयकर्म के उदयसे होती है, क्योंकि वह जीव का स्वरूप नहीं है। यदि जीव का स्वरूप माना जाय तो क्षीण कर्म अर्थात् कर्मरहित जीवों के भी दुःख होना चाहिये, क्योंकि ज्ञान और दर्शन के समान कर्म के विनाश होने पर दुःख का विनाश नहीं होगा, किन्तु सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह जीव का स्वभाव है, और इसलिये वह कर्म का फल नहीं है । सुख को जीव का स्वभाव मानने पर सातावेदनीय कर्म का अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि दुःख-उपशमने के कारणभूत सुद्रव्यों के सम्पादन में सातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है। इस व्यवस्था के मानने पर सातावेदनीयप्रकृति के पगलविपाकित्व प्राप्त होगा, ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि दुख के उपशम से उत्पन्न हुए, दुख के अविनाभावी उपचार से ही सुख संज्ञा को और जीव से अपृथग्भूत प्राप्त ऐसे स्वास्थ्य कण का हेतु होने से सूत्र में सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकित्व और सुख-हेतुत्व का उपदेश दिया गया है। यदि यह कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीयकर्म के जीवविपाकीपना और पुद्गलविपाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नहीं, क्योंकि यह बात इष्ट है। यदि कहा जाय कि उक्त प्रकार का उपदेश प्राप्त नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि जीव का अस्तित्व अन्यथा बन नहीं सकता है, उसप्रकार के अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है। सुख और दुख के कारणभूत द्रव्यों का सम्पादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा कोई कर्म पाया नहीं जाता। ( धवल पु० ६ पृ. ३५-३६ ) उपर्युक्त आगम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जो जीव बाह्यपरिग्रह के अभाव में दुखी हो रहे हैं, उनके दुःख दूर होने का कारणभूत बाह्यपरिग्रह सातावेदनीय कर्मोदय से मिलता है, किन्तु जिन जीवों ने बाह्यपरिग्रह का त्याग कर दिया है अथवा जो जीव बाह्यपरिग्रह के अभाव में सुख का आनन्द ले रहे हैं। जैसे मुनि महाराज प्रादि, उनके पुण्य का उदय होते हुए भी बाह्यपरिग्रह का संयोग नहीं होता, क्योंकि वहाँ पर दुःख नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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