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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व । [ ४७५ यहाँ पर भी यही कहा गया है कि उपकार या अपकार जीव का शुभ व अशुभ कर्म करते हैं। संस्कृत टीका-पूर्वोपानितप्रशस्ताप्रशस्तं कर्म पुण्यकर्म पापकर्म जीवस्य उपकारं लक्ष्मीसंपदादिकं सुखहित. वाञ्छितवस्तुप्रदानम् अपकारम् अशुभमसमीचीनं दुःख-दारिद्रयरोगाहितलक्षणं च कुरुते । शुभाशुभकर्म जीवस्य सुख दुःखादिकं करोतीत्यर्थः ॥३१९।। पूर्वोपार्जित प्रशस्तकर्म पुण्यकर्म जीव को लक्ष्मी संपदा सुख व हितकारी वांछित वस्तुनों को देता है। पूर्वोपार्जित अप्रशस्त कर्म पापकर्म जीव को दुःखी, निर्धन, रोगी आदि करता है। जीव के शुभ-अशुभकर्म ही जीव को सुखी, दुःखी करते हैं। "बाल-जोवण-रायादिपज्जायाणं विणासण्णहाणुववत्तीए तविणाससिद्धीदो।" _ ( जयधवल पु० १ पृ० ५७ ) कर्मों के कार्यभूत बाल, यौवन, और राजा आदि पर्यायों का विनाश कर्मों के विनाश हुए बिना नहीं बन सकता है । अर्थात् राजा आदि पर्यायें कर्मोदय जनित हैं। "मत्तो सहसंबंधेण परिणामंतरगमणण्णहाणुववत्तीदो। ण च परिणामंतरगमणमसिद्ध, तस्स तेण विणा चरकुटुंक्खयादीणं विणासाणववत्तीए परिणामंतरगमणसिद्धीदो।" (जयधवल पु. १ पृ. ५७ )। कर्म मूर्त है, क्योंकि रुग्णावस्था में औषधि का सेवन करने से रोग के कारणभूत कर्मों में उपशान्ति वगैरह देखी जाती है। यदि कहा जाय कि मूर्त औषधि के सम्बन्ध से रोग के कारणभूत कर्म में परिणामान्तर की प्राप्ति किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि परिणामान्तर की प्राप्ति के बिना ज्वर कुष्ठ और क्षय आदि रोगों का विनाश बन नहीं सकता है इसलिये औषधि आदि से कर्म में परिणामान्तर की प्राप्ति होती है। इससे सिद्ध है कि बाह्य द्रव्य क्षेत्र काल भव आदि के निमित्त से कर्मोदय होता है। यदि द्रव्य आदि अनुकूल नहीं है तो उनका स्वमुख उदय नहीं होता है अर्थात् वे कर्म अपना फल नहीं देते हैं। परमुख उदय होता है। अर्थात् दूसरे कर्मरूप संक्रमण होकर उस रूप फल देते हैं । 'दव्वकम्माइंजीव संबंधाई संताइ किमिदि सगकज्ज कसायसरूवं सम्वद्धण कुणं ति? अलद्धविसिटभावत्तावो। तवलंभे कारणं वत्तव्वं? पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव-खेत्त-काल-भवा वेक्खाए जायदे। तदोण सव्वद्धदव्वकम्माइं सगफलं कुणंति त्ति सिद्ध।' (जयधवल पु. १ पृ. २८९ )। जब द्रव्यकर्मों का जीव के साथ संबंध पाया जाता है तो वे अपने कार्य को सर्वदा क्यों नहीं उत्पन्न करते हैं ? सभी अवस्थानों में फल देनेरूप विशिष्टअवस्था को प्राप्त न होने के कारण द्रव्यकर्म सर्वदा अपने कार्य को नहीं करते हैं। द्रव्यकर्म फल देनेरूप विशिष्ट अवस्था ( उदयरूप अवस्था ) को सर्वदा प्राप्त नहीं होते, इसमें क्या कारण है ? प्रागभाव के कारण द्रव्यकर्म सर्वदा उदय अवस्था को प्राप्त नहीं होते हैं । प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा लेकर होता है, इसलिये द्रव्यकर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं यह सिद्ध होता है। "विवायसुत्तं गाम अंग दव्वक्खेत्तकालभावे अस्सिदूण सुहासुहकम्माण विवाये वाणेदि।" ( जयधवल पु० १ पृ. १३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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