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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४७१ वीतरागियों के साता व असाता का युगपत् उदय सम्भव है शंका-यह तो ठीक है कि अयोगकेवली के साताव असाता में से अन्यतर का उदय ही सम्भव है ? परन्तु उपशान्तकषायादि गुणस्थानवर्ती महात्माओं के उदयस्वरूप साता के साथ जब असातादेवनीय उदित होता है तब उनके दोनों साथ में उदित मानने पड़ेंगे? इसका भी कारण यह है कि सयोगकेवली तक के सब जीवों के असाता का उदय सम्भव है। (गो० क. २७१) तथा ईर्यापथ आस्रवत्व को परिप्राप्त नवबद्ध साता तो उदयस्वरूप होने से नित्य उदित है ही। स्पष्ट करें। समाधान-ठीक है। चौदहवें गुणस्थान में साता व असाता में से एक का ही उदय रहता है। ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थानों में जब प्राचीन काल में बद्ध असाता का उदय होता है उस समय एक समय स्थिति वाली नवकबद्ध साता भी उदित होती है। प्रत. इन तीन गुणस्थानों में नवीन बँधने वाली साता तथा प्राचीन असाता; इन दोनों का युगपत् उदय सम्भव है। -पल 22-10-79/I, II/ज. ला जैन, भीण्डर मनुष्यायु का उदीरणाकाल १ समय कैसे ? शंका-धवल पुस्तक १५ में मनुष्यायु का उदोरण-काल एक समय बताया, सो कैसे? समाधान-कोई जीव अपनी प्रायु में एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहने पर अप्रमत्त से प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होकर एक समय के लिये मनुष्यायु का उदीरक होकर अगले समय में अनुदीरक हो गया। देखो-ध० पु० १५१४५ इसीप्रकार पृ० ६३ पंक्ति ७-८ के कथन को समझ लेना चाहिये । –पत 14-11-80/I,II/ज. ला. जैन, भीण्डर देवायु व नरकायु की उदीरणा होती है शंका-गाथा ४४१ गो. क. में चारों आयु की उदीरणा बतलाई है और गाथा १५९ में भुज्यमान आयु की उतीरणा बतलाई, बध्यमान आयु की उदीरणा नहीं। गाथा ४४८ में नरकायु की उदीरणा असंयत तक बतलाई, देवायु की नहीं बतलाई। हमारी शंका है कि देवायु और नरकायु की उदीरणा ही नहीं होती, क्योंकि देव और नारकी को अकालमृत्यु नहीं होती। फिर यह उपर्युक्त कथन गाथा ४४१ व ४४८ का किस प्रकार है ? समाधान-कुछ अपवादों के साथ छठे गुणस्थान तक जिन प्रकृतियों का उदय है उनकी उदीरणा अवश्य होती है । कहा भी है 'उदयस्सुवीरणस्य य सामित्तादो ण विज्जवि विसेसो।" ( गो० क० गा० २७८ ) अर्थात्-उदय और उदीरणा में स्वामीपने की अपेक्षा कुछ विशेषता नहीं है। नारकियों के नरकायु का और देवों के देवायु की उदीरणा मरण से एकप्रावली पूर्व तक होती रहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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