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________________ ४६६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-यद्यपि सर्वार्थ सिद्धि आदि टीकामों में परघात की व्याख्या इसी प्रकार की गई है, किंतु धवल प्रादि ग्रंथों में परघात की व्याख्या इसप्रकार की गई है-जस्स कम्मस्सुदएण सरोरं परपोडाय णाम। (धवल १३।३६४ ) परेषां घातः परघातः। जस्स कम्मस्स उदएण परघावहेदू सरीरे पोग्गला णिफज्जंति तं कम्मं परघादं णाम । तं जहा-सप्पदाढासु विसं, विच्छियपुछे परदुखहेउ पोग्गलोवचओ, सीह-वग्ध-च्छवलादिसु गह-बंता, सिंगि वच्छणाहीधत्तूरादओ च परघादुप्पायया ( धवल ६३५९ )। जिस कर्म के उदय से शरीर दूसरों को पीडा करनेवाला होता है वह परघात नामकर्म है। पर जीवों के घात को परघात कहते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में पर को घात करने के कारणभूत पुदगल निष्पन्न होते हैं वह परघात नामकर्म है। जैसे सांप की दाढ़ में विष, बिच्छू की पूछ में पर दुःख के कारणभूत पुद्गलों का संचय, सिंह व्याघ्र और चोता आदि में तीक्षण नख और दाँत तथा सिंगी, धतूरा आदि विषैले वृक्ष पर को दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। इसप्रकार परघात नामकर्म को पुण्यप्रकृति कहने में कोई बाधा नहीं आती। -पताघार 77-78 ई. | ज. ला. जैन, भीण्डर ज्ञानावरण व दर्शनावरण के उदय उपयोग में बाधक साधक नहीं वे तो लब्धि में बाधक-साधक हैं शंका-या दर्शनोपयोग के समय ज्ञानावरणकर्म के सर्वघातिया-स्पर्धकों का उदय हो जाता है जिसके कारण ज्ञानोपयोग नहीं हो सकता ? छद्मस्थों के यदि दर्शनोपयोग के समय भी ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम रहता है तो उनके ज्ञानोपयोग होने में क्या बाधा है, क्योंकि कर्मों के अनुसार ही छद्मस्थों के दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग होता है ? समाधान-सभी संसारी जीवों के प्रचक्षदर्शनावरण का तथा मतिज्ञानावरण व श्रतज्ञानावरण कर्मों का तो क्षयोपशम रहता ही है अर्थात इन कर्मों के सर्वघाती-स्पर्घकों का तो स्वमुख से अनुदय रहता है और देशघातिस्पर्धकों का स्वमुख से उदय रहता है। सर्वघातिस्पर्धक स्तिबुकसंक्रमण द्वारा देशघातिरूप उदय में आते हैं। इन कर्मों के क्षयोपशम होने पर आत्मा में जो अर्थ ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है वह लब्धि है। कहा भी है 'ज्ञानावरणक्षयोपशमे सत्यात्मनोऽर्थग्रहणेशक्तिःलन्धिरच्यते ।' लब्धिस्वरूप से नाना दर्शन और ज्ञान एक जीव में एक साथ पाये जाते हैं। क्षयोपशम अर्थात लब्धि की अपेक्षा ही ज्ञानमार्गणा में मति आदि ज्ञानों के और दर्शनमार्गणा में चक्षु आदि दर्शनों के काल आदि का कथन किया गया है, किंतु अर्थग्रहण में जो उद्यम, प्रवृत्ति अथवा व्यापार है वह उपयोग है । कहा भी है "आत्मनोऽर्थग्रहण उद्यमोऽर्थग्रहणे प्रवर्तनमर्थग्रहणे व्यापारणमुपयोग उच्यते ।" इसका भाव ऊपर कहा जा चुका है। श्री वीरसेन आचार्य ने भी इसी प्रकार कहा है "स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोगः । न स ज्ञानदर्शनमार्गणयोरन्तभवंति ; ज्ञानहगावरणकर्मक्षयोपशमस्य तदुभय. कारणस्योपयोगत्वविरोधात् ।" ( धवल पु० २ पृ० ४१३ )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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