SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६४ } [ पं० रसनचन्द जंन मुख्तार : "ण च कम्मं सगसरुवेण परसरुवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छवि ।” ( जयधवल ३३२४५ ) । अर्थ - कर्म स्वरूप से या पररूप से फल बिना दिये अकर्मभाव को प्राप्त नहीं होते । कर्म का अनुभवन ही कर्म का उदय है, अथवा जो भोज्यकाल है वह उदयकाल है । "कर्मणामनुभवनमुदयः । उदयो भोज्यकालः” ( कर्मस्तवाख्यः तृतीयः संग्रहः ) । श्री वीरसेन आचार्य ने भी कहा है- "ते चेव फलदाणसमए उदयववएस पडिवज्जंति ।" अर्थात् - वे ही कर्मस्कंध फल देने के समय में 'उदय' इस संज्ञा को प्राप्त होते हैं। इन वाक्यों से सिद्ध है जिस समय क्रोध का उदय है उसी समय जीव क्रोधरूप परिणमता है । - जै. ग. 3-1-66/ VIII / म. ला. जैन दर्शनमोहनीय कर्म चारित्रगुण का घात नहीं करता शंका- २७ फरवरी १९६९ के जनसंदेश में लिखा है कि दर्शनमोहनीयकर्म चारित्रगुण का भी घात करता है, क्या यह ठीक है ? समाधान- -- दर्शनमोहनीय कर्म सम्यग्दर्शनगुरण का घातक है। कहा भी है "हंसणं असागम पवरथेसु रुई पच्चओ फोसणमिदि एयट्ठो । तं मोहेबि विवरियं कुणवि त्ति दंसणमोहणीयं । जस्स कम्मस्स उबएण अणत्ते अत्तबुद्धी, अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयस्थेसु सद्धाए अस्थिरतं, दो विसद्धा वा होदितं दंसणमोहणीयमिवि उत्तं होवि ।" ( धवल ६।३८ ) । अर्थ – दर्शन, रुचि, प्रतीति, श्रद्धा और स्पर्शन ये सब एकार्थं वाचक नाम हैं। आप्त, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते । उस दर्शन को जो मोहित करता है, विपरीत करता उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं । जिस कर्मोदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि, अनागम में आगमबुद्धि, अपदार्थ में पदार्थबुद्धि होती है, अथवा आप्त- आगम-पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है, अथवा आप्त-अनाप्त, आगम ग्रनागम पदार्थ - अपदार्थ में श्रद्धा होती है वह दर्शन मोहनीय कर्म है । "मोहयतीति मोहणीयं कम्मदभ्वं । असागमपयस्थेसु पच्चओ रई सद्धा पासो च दंसणं णाम । तस्स मोहयं तत्तो विवरीयभावजणणं दंसणमोहणीयं णाम ।" अर्थ - जो मोहित करता है वह मोहनीय द्रव्यकर्म है । आप्त, आगम मोर पदार्थों में जो प्रतीति, रुचि, श्रद्धा और दर्शन होता है उसका नाम दर्शन है । उस दर्शन को मोहित करनेवाला विपरीतभाव को उत्पन्न करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय कर्म है । इन वाक्यों से स्पष्ट है कि दर्शनमोहनीयकर्म सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा गुरण को मोहित करता है । किसी भी आचार्य ने दर्शन मोहनीय कर्म को चारित्रगुण को मोहित करनेवाला नहीं कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy