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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४५७ स्वजाति कर्मप्रकृति में संक्रमण हो जाता है। जैसे क्रोध के उदय के समय अन्य तीन ( मान, माया, लोभ ) कषायों का स्वमुख उदय न होकर स्तिबुकसंक्रमण द्वारा क्रोधरूप संक्रमण हो जाता है और इसप्रकार उन तीन कषायों का द्रव्य क्रोधरूप फल देकर उदय में आता है। -जं. सं. 6-9-56/VI/ बी. एल. पदूम, शुजालपुर कर्मोदय का प्रभाव शंका-क्या मोहमन्द या मोहरहित जीवों पर कर्मों के उदय का प्रभाव नहीं होता ? समाधान --- संसार में मोहमन्द जीव तो सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थानवाले हैं, क्योंकि उनसे अधिक मन्दमोह और किसी संसारी जीव के नहीं पाया जाता है। उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली अर्थात् ११ वें, १२ वें १३ वें और १४ वें गुणस्थानवाले मोहरहित जीव हैं, क्योंकि इन चार गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के उदयका अभाव है। मोहमन्द जीव-दसवेंगुणस्थान के अन्तसमय तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय नाम और गोत्र इन छह कर्मों का प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग चारों प्रकार का बन्ध होता है। ऐसा कषायपाहुड सिद्धान्तग्रन्थ का वाक्य है। स्थिति पौर अनुभागबन्ध कषाय से होता है। ठिदि अणुभागा कसायदो होति । यदि दसवें गुणस्थानवाले जीव सूक्ष्मलोभ के उदय के प्रभाव से रहित होते तो उनके कषायका प्रभाव होना चाहिए था और कषाय के अभाव में स्थिति, अनुभागबन्ध के अभाव का प्रसंग आ जायगा। ऐसा होने से सिद्धान्त-आगम से विरोध हो जावेगा। जिस कथन का पागम से विरोध हो वह कथन ग्रहण करने योग्य नहीं हो सके मोहरहित जीव-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवाले जीवों के; ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकों के द्वारा जीव के अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य स्वभाव घाते जाते हैं। इन दोनों गुण बों के असत्य और उभय मनोयोग व वचनयोग भी सम्भव हैं। षटखण्डागम में कहा भी है-मोस मणजोगो सच्चमोस मणजोगो सणिमिच्छाइटिप्पडि जाव खीण-कसाय वियरायछदुमत्याति ॥५१॥ मोसवचिलोगो सच्चमोस वचिजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव खीणकसाय वियराय छवुमत्थात्ति ॥५५॥ अर्थ-असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग संज्ञीमिथ्याष्टिगुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान तक पाये जाते हैं ॥५१॥ मृषावचनयोग और सत्यमषावचनयोग संज्ञीमिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान तक पाये जाते हैं ॥५॥ जिन जीवों के असत्यमनोयोग व वचनयोग पाया जाता हो उन जीवों को कर्मोदय के प्रभाव से रहित कैसे कहा जा सकता है अतः ११ वें व १२ वें गुणस्थानवाले जीव भी कर्मोदय-प्रभाव से रहित नहीं हैं । सयोगकेवली भी कर्मप्रभाव से रहित नहीं हैं, क्योंकि उनके मन, वचन व काय तीनों योगों का सद्भाव पाया जाता है, उनकी वाणी खिरती है और विहार आदि होता है। योग प्रौदयिकभाव हैं, ऐसा प्रागमवाक्य हैओदइओ जोगो सरीरणामकम्मोदय विणासाणंतरंजोग विणासुचलंभा। योग प्रौदयिकभाव हैं क्योंकि शरीरनामकर्म के उदय के विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है। (१० खं० पु० श२२६ ) जोगमग्गणावि मोबइया, णामकम्मस्स उदीरणोदय जणिवत्तादो। योगमार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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