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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४५५ करती हुई परिणति के कारण अशुद्ध है ( गाथा १५०-१५१ ) वरांगचरित्र में भी इसी प्रकार कहा है-'जिस प्रकार कोई नट रङ्गस्थली को प्राप्त होकर नृत्य के अनुरूप नाना वेष धारण करता है, उसी प्रकार यह जीव भी संसाररूपी रङ्गस्थली में कर्मों के अनुरूप नाना पर्यायों को स्वीकार करता है।" ह स्पष्ट है कि मोहनीयादि घातियाकर्मों का उदय जिस अनूभाग के साथ होता है उस अनुभाग के अनुरूप ही आत्मा के परिणाम अवश्य होते हैं। उसमें किचित भी हीन या अधिकता नहीं होती। यदि उदय की डिग्री ट डिग्री प्रात्मपरिणाम न माने जावें अर्थात हीन या अधिकता मानी जावे तो उपयुक्त आगम से विरोध आजावेगा। आगम अनुकूल नहीं मानने वाला सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है। -*.ग. 19-9-66/IX/प्रेमचन्द (१) प्रत्येक कर्म फल अवश्य देता है (२) क्रोधोदय के समय मानादिक का परमुख उदय (३) स्तिबक संक्रमण के उदाहरण शंका-जिस समय क्रोध का उदय होता है उस समय मान आदि कषाय रसोदय होकर खिरती हैं या प्रदेशोदय रूप । तथा भाववेद एक पर्याय में एक ही उदय होता है तब अन्य दो वेद भी क्या प्रदेशोदय होकर खिरते हैं? समाधान-कोई भी कर्म बिना फल दिये नहीं खिरता। कर्म का फल अपने रूप हो या पररूप हो। (ज.ध. पु० ३ पृ० २४५) । इस प्रागमानुसार किसी भी कर्मका मात्र प्रदेशोदय नहीं होता, किन्तु अनुभागोदय भी अवश्य होता है । जिससमय क्रोध का उदय है उससमय उदय में आनेवाले मान, माया, लोभ रूपकर्म ( उस समय से ) एक समय पूर्व ही स्तिबुकसंक्रमण द्वारा क्रोधरूप परिणम जाते हैं। अतः क्रोधोदय के समय में उदय आनेवाला मान, माया, लोभवाला कर्म भी क्रोधरूप संक्रमित हो चूकता है। इस प्रकार मान, माया, लोभ द्रव्यकर्म का अपनेरूप उदय न होकर क्रोधरूप उदय पाया जाता है। जिस द्रव्यवेद का उदय होगा वैसा ही भाववेद होगा; अन्य दो द्रव्यवेदों का एक समय पूर्व स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदयवेदरूप संक्रमण हो जाता है और दोवेदरूप द्रव्यकर्म अपनेरूप फल न देकर उदयवेदरूप फल देकर घिर जाता है। -जं. सं. 20-3-58/VI/ कपूरीदेवी (१) बिना फल दिये कोई कर्म नहीं करता (२) "कर्म कटना" से अभिप्राय शंका-जो कर्म किया जा चुका है उसका फल भोगना ही होगा। यह कहना कि 'कर्म कट सकता है' यह बात समझ में नहीं आती। कर्म कट कैसे सकता है ? यह बात दूसरी है कि अच्छे कर्म करेगा तो अच्छा फल मिलेगा, लेकिन जो कर चुके हैं उनको भरना तो अवश्य होगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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