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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। इन सब कथनों से यह स्पष्ट है कि तीर्थकर नामकर्म आदि कर्मों के निमित्त से बाह्य सामग्री व अन्य जीवों में भी परिणमन होता है किंतु उस रूप परिणमन का उपादान कारण बाह्य सामग्री व अन्य जीव स्वयं हैं। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध चला पा रहा है। गाली बाह्य निमित्त है अन्तरंग निमित्त तज्जाति क्रोधकषाय कर्म का उदय है। उपादान-कारण संसारीजीव है, इन तीनों निमित्तों के मिलने पर दूसरा जीव, जिसको गाली दी गई है बुरा मान सकता है। मात्र बाह्यनिमित्त अकिंचित्कर है। अन्य दो निमित्तों में से किसी एक के न होने पर गाली का असर नहीं हुआ। असर पड़ना अवश्यंभावी नहीं। कर्म का कार्य निमित्त जुटाना है भी और नहीं भी, कोई एकान्त नियम नहीं है । १० खं० पु०६ व १३ में तथा मोक्षमार्गप्रकाशक में कहा है कि सातावेदनीय-कर्मोदय से बाह्यसामग्री मिलती है। प्रमाण अर्थात ज्ञान दो प्रकार का है प्रत्यक्ष और परोक्ष । उपात्त और अनुपात परपदार्थों द्वारा प्रवर्त परोक्ष समयसार गाथा १३ टीका)। प्रकाश, उपदेश इत्यादि अनुपात्त पदार्थ हैं। 'प्रकाश व उपदेश पादिका न मिलना' इसमें कर्मोदय भी निमित्त है। यदि सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जावे तो ज्ञानावरण कर्मोदय भी एक निमित्त-कारण है। -जै.सं. 10-4-58/VI/रा. दा. कराना छठे गुणस्थान तक असाता का उदय शंका-छठे गुणस्थान के बाद असातावेदनीयकर्मको क्या अवस्था होती है ? समाधान-छठे गुणस्थान में प्रसातावेदनीयकर्म की उदीरणाव्युच्छित्ति तथा बंधव्युच्छित्ति हो जाती है ( गोम्मटसार कर्मकांड गाथा २७९-२८१, ९८)। अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में प्रसातावेदनीयकर्म का उदय रहता है। अपकर्षण व संक्रमण भी होता है, किन्तु उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि बंध का अभाव है। -ज.सं.4-12-58/V/रा.दा.कैराना संहनन नामकर्म का कार्य-कोलक, प्रर्द्धनाराच व नाराच में अन्तर शंका-कोलकसंहनन किसे कहते हैं ? नाराच और अर्धनाराच में भी पूरी कीलें तथा आधी कीलें रहती हैं तब उनसे कीलक में क्या अन्तर है ? समाधान-कीलक संहनन बीच की हड्डी में दोनों तरफ चूल होती है जो हड्डियों के गद्रों में फंस जाती है जैसे चूल के किवाड़ होते हैं। नाराच संहनन में बीच की हड्डी और दोनों तरफ की दोनों हड्डियों में आरपार कील होती है जैसे कबजे में प्रारमपार कील होती है । अर्धनाराच में आरमपार कील नहीं होती, किन्तु बीच में कील होती है। -ज. ग. 13-5-68/lX/ R. ला. जैन, मेरठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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