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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ४४६ ] बीच में ही कर्मों की उदय उदीरणा बदल जाती है । आगम में अनवोदयरूप कर्म के उदय उदीरणाकाल का निर्देश किया है, उसके समाप्त होते ही विवक्षित कर्म के उदय उदीरणा का प्रभाव होकर उसका स्थान दूसरे कर्म की उदय उदीरणा ले लेती है । जैसे सामान्य से हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय उदीरणाकाल छह महीना है । इसके बाद इनकी उदय उदीरणा न होकर प्रति और शोक की उदय उदीरणा होने लगती है, किन्तु छह महीना के भीतर यदि हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही इनकी उदय उदीरणा बदल जाती है । यह कर्म का उदय - उदीरणाकाल है। अब एक ऐसा जीव लो जो निर्भय होकर देशान्तर को जा रहा है, किंतु किसी दिन मार्ग में ही ऐसे जंगल में रात्रि हो जाती है जहाँ हिंस्र जन्तुओं का प्राबल्य है और विश्राम करने के लिये कोई निरापदस्थान नहीं है । यदि दिन होता तो उसे रंचमात्र भी भय न होता, किन्तु रात्रि होने से वह भयभीत होता है इससे उसके असाता, अरति, शोक और भयकर्म उदय उदीरणारूप होने लगता है । यह कालनिमित्तक उदयउदीरणा है। साता और असाता दोनों का अबाधाकाल समाप्त हो जाने से एक साथ दोनों ही प्रकृतियों के निषेक उदय होने के योग्य होते हैं । किन्तु इन दोनों प्रकृतियों में से एक का स्वमुख उदय ( फलानुभवन ) होगा और दूसरी प्रकृति का परमुख उदय होगा। इन दोनों प्रकृतियों में से जिसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव होंगे उसी का फलानुभवनरूप स्वमुख उदय होगा और दूसरीप्रकृति का स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा परमुख उदय होगा । - जै. ग. 21-5-64/IX, XI / सुरेशचन्द्र अत्यन्त भिन्न नोकर्म के श्राश्रित कर्मोदय है शंका- तीर्थंकर की दिव्यध्वनि गणधरादि के बिना नहीं खिरती ऐसा आगमवचन है तो फिर भगवान की वाणी तथा वचनवर्गणा का उदय भी गणधर के आश्रित ही रहा । अत्यन्त भिन्न नोकर्म के आश्रित द्रव्यकर्म कैसे है ? समाधान - दिव्यध्वनि का उपादान कारण भाषावर्गणा ( शब्दवगंगा ) हैं जो सकल लोक में भरी हुई हैं, किन्तु जहाँ-जहाँ ( ओष्ठयुगलव्यापार, घंटाभिघात मेघ आदि ) बहिरंग कारण मिल जाते हैं वहाँ-वहाँ की भाषावगंणा शब्दरूप परिणमती है सर्वत्र नहीं परिणमती ( पंचास्तिकाय गाथा ७९ की उभय टीकाएँ ) । दिव्यध्वनि में भाषावगंगा तो उपादान कारण है, केवलज्ञान ( ष० खं० पु० १, पृ० ३६८ ), वचनयोग, भव्यजीवों का भाग्य, गणधर समवसरणरूपी क्षेत्र, संध्याकाल श्रादि अनेक निमित्त कारण हैं । उपादान कारण एक होता है और निमित्तकारण अनेक होते हैं । जिससमय तक उपादानकारण और समस्त निमित्त कारण न मिल जावें उससमय तक कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव व भाव अनुकूल होते हैं तो द्रव्यकर्म अपने स्वरूप से उदय में आता है अन्यथा पररूप से उदय में आता है। कहा भी है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव आदि का आश्रय लेकर उदय और उदीरणारूप फलविपाक होता है । यहाँ 'क्षेत्र' पद से नरकादि क्षेत्र का, ‘भव' पद से जीवों के एकेन्द्रियादिभवों का, 'काल' पद से शिशिर बसन्त आदि काल का, अथवा बाल, यौवन, वार्धक्य आदि कालजनित पर्यायों का; और 'पुद्गलद्रव्य' पद से गंध-ताम्बूल -वस्त्र- प्राभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए ( क० पा० सुत्त पृ० ४६५ ) । इस भागमप्रमाण से सिद्ध है कि अत्यन्त भिन्ननोकर्म के आश्रित द्रव्यकर्मोदय है । - . ग. 27-3-58/VI / कपूरीदेवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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