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________________ ४३४ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-जो योग शुभपरिणामों के निमित्त से होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह अशुभ योग है । शायद कोई यह माने कि शुभ और अशुभकर्मका कारण होने से शुभ और अशुभयोग होता है सो बात नहीं है, यदि इसप्रकार इनका लक्षण कहा जाता है तो शुभयोग ही नहीं हो सकता, क्योंकि शुभयोग को भी ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध का कारण माना है। -जे.ग. 16-5-66/IX/र.ला. णेन द्रव्यस्त्री के बन्ध योग्य प्रकृति शंका-बन्ध के प्रकरण में गाया नं० ११० में मनुष्यगति के बन्ध में स्त्रीवेदी मनुष्य के १२० प्रकृतियों का बन्ध बतलाया है। अगर यह कथन भाववेद की अपेक्षा है तो फिर द्रव्यवेदी स्त्री के कितनी प्रकृतियोंका बंध होता है ? गोम्मटसार-कर्मकांड में द्रव्यस्त्री का कथन क्यों नहीं किया ? - समाधान-पखण्डागम एवं धवलग्रंथ (प. खं० टीका) के विषय का कथन संक्षेप से गोम्मटसार में किया गया है। षट्खंडागम एवं धवलग्रंथ में भावस्त्री को अपेक्षा कथन है, द्रव्यस्त्री की अपेक्षा कथन नहीं है। धवल पुस्तक १ पृ० १३१ पर लिखा है कि सूत्र १ में 'इमाणि' पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणास्थानों का ग्रहण करना चाहिये, द्रव्यमार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है; क्योंकि द्रव्यमार्गणाएँ देश, काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं । देवांगनाओं तथा तियंचनियों का कथन भी भाव की अपेक्षा है। द्रव्य की अपेक्षा नहीं है। द्रव्य-मनुष्य-स्त्री के तिर्यंचों के समान ११७ प्रकृतियां बन्ध योग्य हैं, क्योंकि उनके भी तीर्थकर व आहारकशरीर व आहारकशरीरांगोपाङ्ग इन तीन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। -ज.ग. 10-1-66/VIII/र.ला. जैन स्त्रीवेद के हेतुभूत परिणाम शंका-मनुष्य से मनुष्यनी तथा देवी किन परिणामों से बनता है ? समाधान-कपट, घोखे आदि के परिणामों से स्त्रीवेद का तीव्र अनुभाग लिये बंध होता है। जिस मनुष्य के मरते समय कपटआदिरूप परिणाम होते हैं वे मरकर मनुष्यनी व देवी होते हैं। -जं. ग. 14-12-67/VIII/ र.ला. जैन सम्यक्त्वी प्रथम समयवर्ती देव के भुजगार प्रकृति बन्ध का स्पष्टीकरण शंका-गो० क० गाया ४५३ बड़ी टीका पृ० ६०३ पर प्रश्न किया जो उपशांतकषाय से मरकर वेवअसंयतगुणस्थानवर्ती होय तहाँ एक ते सात का बंध व एक ते आठ का बंध होई भुजाकार बंध संभवे है, ते क्यों न करे? इसका समाधान अबद्धायुष्क की अपेक्षा एक से सात का भुजाकार का अभाव बतलाया सो तो ठीक, परन्तु जिसने पहले आयु का बंध कर लिया है ऐसा बद्धायु उपशांतकषायवाला मरकर देव होने पर एक से सात का भजाकार बंध क्यों नहीं बतलाया, जो कि सम्भव है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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