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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४३१ तीर्थकर प्रकृति के बन्ध में कारणभूत सामग्री शंका-जो आत्मा तीकर-परमारमा बनकर सिद्ध होता है उनके तीर्थकर होने के पूर्व तीसरेभव में वर्शनविशुद्धि आदि षोडशकारणभावना की आराधना करनेवाला है वह आत्मा तीर्थंकर ही होता है या सामान्यकेवली भी? 2072 समाधान-तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध-प्रारम्भ के लिये उपशम, या क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि मनुष्य होना चाहिये, जिसके मनुष्य या तिथंच आयु का बन्ध न हुआ हो, केवली या श्रुतकेवली के निकट हो ऐसा जीव दर्शनविशुद्धि मादि षोडशकारणभावना द्वारा तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध चतुर्थ आदि तीन गुणस्थानों में प्रारम्भ करता है । तीर्थकरप्रकृति की बन्ध-व्युच्छित्ति अपूर्वकरणगुणस्थानकाल के संख्यात-बहुभाग बीतने पर होती है। विशेष के लिये गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ९३ तथा धवल पु. ८१०७३ से ९१ तक देखना चाहिये । समस्त अनुकूल कारणों के मिल जाने पर और प्रतिकूल कारणों के अभाव हो जाने पर कार्य की सिद्धि को कोई भी रोकने में समर्थ नहीं, अर्थात् अवश्य होती है। -जं. ग. 9-1-64/IX/ ब.लामानन्द पाहारकद्विक व तीर्थंकरप्रकृति का युगपत् बन्ध सम्भव शंका-क्या तीर्थकर और आहारकटिक का मंध एकपर्यायमें साथ ही हो सकता है ? होकर क्या उस. पर्याय में एक का गंध छूट सकता है ? या दोनों आगे साथ-साथ जा सकते हैं ? __ समाधान-तीर्थंकरप्रकृति का बंध चौथेगुणस्थान से आठवें गुणस्थान तक हो सकता है, किन्तु आहारकद्विक का बंध सातवें और आठवें इन दो ही गुणस्थान में संभव है। ध० पु. ८० ७१ व ७३ )। सातवें और पाठवें गुणस्थान में एक जीव के एक ही मनुष्यपर्याय में एकसाथ प्राहारकद्विक और तीर्थंकरप्रकृति का बंध संभव है जैसा कि बंध-सन्निकर्ष में कहा है ( महागंध पु० ३ १०६, १२४ ) सातव गुणस्थान से गिरकर छठे से चौथे गणस्थान में आने वाले जीवके पाहारकद्विकका बंध तो नहीं होता, किन्तु तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता रहता है। पाठवें गुणस्थान का संख्यातबहुभाग बीत जाने पर प्राहारकद्विक और तीर्थकरप्रकृति को एक साथ बंधव्युच्छित्ति होती है। आहारकद्विक का बंध मात्र मनुष्यपर्याय में ही होता है; किन्तु तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नारक, मनुष्य और देव तीनों-गतियों के सम्यग्दृष्टिजीवों के हो सकता है इतनी विशेषता है कि तीर्थंकरप्रकृति का बंध प्रारम्भ तो मनुष्यपर्याय में ही होता है। -ज. ग. 4-7-63/1X/ म. ला. जैन संक्लेश-विशुद्धि के काल में पाप व पुण्य दोनों प्रकृतियों का बन्ध शंका-शुभप्रकृति का संक्लेश-परिणामों से जघन्य अनुभाग और विशुद्धपरिणामों से पापप्रकृतियों का जघन्यअनुभागबन्ध होता है, ऐसा आगम में लिखा है। जब कोई जीव शुभकार्य करता है तो क्या उस समय उसके तीव-संक्लेशपरिणाम होते हैं जिससे पुण्यप्रकृतियों में जघन्यअनुभागबन्ध होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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