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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४२५ 'ओरालिय वेउन्धिय आहार तेया कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं जो बंधो सो जीवपोग्गलबंधो णाम । एकीभावो बंधः, सामीप्यं संयोगो वा युतिः।' (धवल पु० १३ पृ० ३४७ व ३४८ ) । औदारिकवर्गणाएं, वक्रियिकवर्गणाएं, आहारकवर्गणाएं, तैजसवर्गणाएं और कार्मणवर्गणाएं इनका और जीवों का जो बंध होता है वह जीव-पुद्गल-बंध है । एकीभाव को प्राप्त होना बंध है और समीपता या संयोग का नाम युति है। 'बंधो णाम दुभावपरिहारेण एयत्तावत्ती । ण च तत्थफासो अस्थि, एयत्त तस्विरोहादो। ण च सव्वफासेण वियहिचारो, तत्थ एगत्तावत्तीए विणा सव्वावयबेहि फासम्भुवगमादो।' (धवल पु० १३ पृ०७) ___अर्थ-द्वित्व का त्याग कर एकत्व की प्राप्ति का नाम बंध है। परन्तु एकत्व के रहते हुए स्पर्श नहीं पाया जाता, क्योंकि एकत्व में स्पर्श के मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि इस तरह तो सर्वस्पर्श के साथ व्यभिचार हो जायगा। सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहां पर एकत्व की प्राप्ति के बिना सब अवयवों द्वारा स्पर्श स्वीकार किया गया है। श्लोकवातिक पु०६ पृ० ३९१ पर लिखा है 'अनेकपदार्थानामेकरवबुद्धि जनकसम्बन्धविशेषो बन्धः।' अनेक पदार्थों में एकत्वज्ञान कराने का हेतु ऐसा सम्बन्ध विशेष सो बन्ध है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी तस्वार्थसार में लिखा है बन्धं प्रति भवत्यैक मन्योन्यानुप्रवेशतः। युगपनावितः स्वर्ण रौप्यवज्जीव कर्मणोः ॥१८॥ बन्ध होनेपर जिसके साथ बन्ध होता है उसके साथ एक दूसरे में प्रवेश हो जाने पर परस्पर एकता हो जाती है। जैसे सुवर्ण और चांदी को एक साथ गलाने से दोनों एकरूप हो जाते हैं उसीप्रकार जीव और कर्मों का बन्ध होने से परस्पर एकरूप हो जाते हैं। भी पूज्यपादाचार्य ने भी सर्वार्थसिद्धि में इसी बात को कहा है 'बन्ध पडि एयत्त लक्खणदो हवा तस्स णाणत्तं ।' प्रात्मा और कर्म बन्धकी अपेक्षा एक हैं, किन्तु लक्षण की अपेक्षा वे भिन्न-भिन्न हैं। -ण. ग. 11-3-71/VII/ सुलतानसिंह १७ प्रकृतियों का बन्ध एक स्थानिक है। उदय व सत्त्व किन्हीं का एक स्थानिक होता है शंका-पंचसंग्रह गाथा ४८६ पृ० २७६ एवं गो० क० गा० १८२ में, १७ प्रकृतियों का अनुभागबन्ध एक स्थानिक कहा है और अन्य सर्व प्रकृतियों का अनुभागबन्ध एकस्थानिक सम्भव नहीं है, ऐसा कहा है। क्या यह कपन मात्र बन्धकी अपेक्षा से है या सत्त्व व उबय की अपेक्षा से भी है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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